Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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जैनधर्म का साँस्कृतिक मूल्यांकन १११ ये श्रमण पूर्ण अहिंसक होते हैं । षट्काय (पृथ्वी-काय, अपकाय, तेउकाय, वायुकाय, वनस्पति काय और त्रसकाय) जीवों की रक्षा करते हैं। न किसी को मारते हैं, न किसी को मारने की प्रेरणा देते हैं और न जो प्राणियों का वध करते हैं उनकी अनुमोदना करते हैं। इनका यह अहिंसा प्रेम अत्यन्त सूक्ष्म और गम्भीर होता है।
ये अहिंसा के साथ-साथ सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह के भी उपासक होते हैं। किसी की वस्तु बिना पूछे नहीं उठाते । कामिनी और कंचन के सर्वथा त्यागी होते हैं । आवश्यकता से भी कम वस्तुओं की सेवना करते हैं। संग्रह करना तो इन्होंने सीखा ही नहीं। ये मनसा, वाचा, कर्मणा किसी का वध नहीं करते, हथियार उठाकर किसी अत्याचारी-अन्यायी राजा का नाश नहीं करते, लेकिन इससे उनके लोकसंग्रही रूप में कोई कमी नहीं आती। भावना की दृष्टि से तो उसमें और वैशिष्ट्य आता है। ये श्रमण पापियों को नष्ट कर उनको मौत के घाट नहीं उतारते वरन् उन्हें आत्मबोध और उपदेश देकर सही मार्ग पर लाते हैं । ये पापी को मारने में नहीं, उसे सुधारने में विश्वास करते हैं । यही कारण है कि महावीर ने विषदृष्टि सर्प चण्डकौशिक को मारा नहीं वरन् अपने प्राणों को खतरे में डाल कर, उसे उसके आत्मस्वरूप से परिचित कराया । बस फिर क्या था ? वह विष से अमृत बन गया। लोक कल्याण की यह प्रक्रिया अत्यन्त सूक्ष्म और गहरी है ।
इनका लोक-संग्राहक रूप मानव सम्प्रदाय तक ही सीमित नहीं है । ये मानव के हित के लिए अन्य प्राणियों का बलिदान करना व्यर्थ ही नहीं, धर्म के विरुद्ध समझते हैं । इनकी यह लोक संग्रह की भावना इसीलिए जनतन्त्र से आगे बढ़कर प्राणतन्त्र तक पहुँची है। यदि अयतना से किसी जीव का वध हो जाता है या प्रमादवश किसी को कष्ट पहुँचता है तो ये उन पापों से दूर हटने के लिए प्रातः सायं प्रतिक्रमण (प्रायश्चित) करते हैं । ये नंगे पैर पैदल चलते हैं । गाँव-गाँव और नगर-नगर में विचरण कर सामाजिक चेतना और सुषुप्त पुरुषार्थ को जागृत करते हैं । चातुर्मास के अलावा किसी भी स्थान पर नियत वास नहीं करते । अपने पास केवल इतनी वस्तुएँ रखते हैं जिन्हें ये अपने आप उठाकर भ्रमण कर सकें। भोजन के लिए गृहस्थों के यहाँ से भिक्षा लाते हैं । भिक्षा भी जितनी आवश्यकता होती है उतनी ही । दूसरे समय के लिए भोजन का संचय ये नहीं करते । रात्रि में न पानी पीते हैं न कुछ खाते हैं।
इनकी दैनिकचर्या भी बड़ी पवित्र होती है । दिन-रात ये स्वाध्याय मनन-चिन्तन-लेखन और प्रवचन आदि में लगे रहते हैं। सामान्यतः ये प्रतिदिन संसार के प्राणियों को धर्म बोध देकर कल्याण के मार्ग पर अग्रसर करते हैं। इनका समूचा जीवन लोक कल्याण में ही लगा रहता है । इस लोक-सेवा के लिए ये किसी से कुछ नहीं लेते।
श्रमण धर्म की यह आचार निष्ठ दैनन्दिनचर्या इस बात का प्रबल प्रमाण है कि वे श्रमण सच्चे अर्थों में लोक-रक्षक और लोकसेवी हैं। यदि आपदकाल में अपनी मर्यादाओं से तनिक भी इधर-उधर होना पड़ता है तो उसके लिए भी ये दण्ड लेते हैं, व्रत-प्रत्याख्यान करते हैं। इतना ही नहीं, जब कभी अपनी साधना में कोई बाधा आती है तो उसकी निवृत्ति के लिए परीषह और उपसर्ग आदि की सेवा करते हैं। मैं नहीं कह सकता इससे अधिक आचरण की पवित्रता, जीवन की निर्मलता और लक्ष्य की सार्वजनता और किस लोकसंग्राहक की होगी ?
थप
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