Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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प्राकृत-अपभ्रंश पद्यों का काव्यमूल्यांकन
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चिन्तादुम्मिअमाणसिआ सहअरिदंसणलालसिआ।
विअसिअ कमल मणोहरए विहरइ हंसी सरवरए॥-४१४ हंसी चिन्ता से दुर्मन है, शब्दावली भी उसकी इस दशा का उद्घाटन कर रही है । पद्य के पढ़ते ही नेत्रों के समक्ष विरहजन्य वातावरण उपस्थित हो जाता है और ऐसा ज्ञान होने लगता है कि किसी विरही का विरह शब्दों की धारा में प्रवाहित हो रहा है। यों तो अनप्रास और यमक दोनों ही शब्दालंकार शब्दों के नियोजन से ही रस की सृष्टि करते हैं पर उपर्युक्त पद्य में शब्दों ने ही रस संवेग को उपस्थित कर दिया है। अनिर्वचनीय रसानुभूति को उत्पन्न करने का प्रयास श-दों के द्वारा ही किया गया है। यह काव्य का सिद्धान्त है कि काव्य का वाच्य सर्वत्र विशेष होता है। वाच्य के इसी विशेषत्त्व को प्रकट करने के लिये भाषा को भी विशेषत्त्व प्राप्त करना होता है। महाकवि ने उक्त समस्त प्राकृत-पद्यों में शब्दों को-ह्रस्व एवं लघु रूप में प्रयुक्त कर व्यवहारिक साधारणत्व का अतिक्रमण कर असाधारण रूप में वर्गों की योजना की है और काव्य के संगीत धर्म को उपस्थित किया है । हिअआहि अपि दुक्खओ सरवरए धुदपक्खो । (४१६), परहअमहर पलाविणी (४१२४), पिअअम विरह किलामिअवअणओ (४१२८), फलिहसिलाहणिम्मलणिज्झर (४१५०), पसिपिअअमसुंदरिए (४१५३), आदि पदों द्वारा हृदय की अस्फुट बात भाषा में अभिव्यक्त करने का कवि ने प्रयास किया है। उक्त सभी पद अर्थ को विचित्र ध्वनितरंग द्वारा विस्तृत कर हृदय की गम्भीर और व्यापक भावनाओं को चित्रित करते हैं। इन पदों में संगीत की एक ऐसी मधुर झंकार है, जिससे हृत्तन्त्रियाँ शब्दायमान हुए बिना नहीं रहती।
कवि ने जहाँ उक्त प्राकृत पद्यों में संगीतधर्मों का नियोजन किया है वहाँ कतिपय उपमानों द्वारा चित्रधर्म की भी स्थापना की है । बाह्य में किसी वस्तु या घटना के स्मृतिधृत स्फुट-अस्फुट चित्र को मन के परदे में अंकित कर उसकी सहायता से वक्तव्य की अभिव्यक्ति करने के हेतु महाकवि कालिदास ने उपमानों का ग्रहण किया है। इन्द्रियानुभूति द्वारा जिन पदार्थों के संस्कार हमारे हृदय-पटल पर पड़ते हैं, उन्हें उपमानों द्वारा ही प्रेषणीय बनाया जा सकता है। उर्वशी के नख-शिख सौन्दर्य की अभिव्यञ्जना के हेतु मिअलोअणि (४८, ४।५६)-मृगलोचनी, हंसगइ (४।२०, ४।५६)-हंसगति, अंबरमाण (४।२३) -अंबरमान, अर्थात् मेघसमान प्रभृति उपमानों का व्यवहार किया है । मृगलोचनी उपमान केवल नायिका की बड़ी-बड़ी आँखों की ही अभिव्यञ्जना नहीं करता, अपितु नायिका की सतर्कता की भी अभिव्यञ्जना करता है यह उपमान मन के अमूर्त भावों को मूर्त रूप देता है। इसी प्रकार 'हंसगति' उपमान से भी नायिका की सुन्दर मन्थरगति तो अभिव्यक्त होती ही है, साथ ही उसका रूपलावण्य भी मूत्तिमान हो जाता है। 'अंवरसमान' उपमान द्वारा कवि ने गज के कृष्णवर्ण की व्यञ्जना के साथ उसके विशाल रूप की भी अभिव्यक्ति की है। इस प्रकार महाकवि कालिदास ने दैहिक एवं मानसिक अनुभूतियों के लिये प्रकृति से विविध प्रकार के उपमान उक्त प्राकृत-पद्यों में प्रयुक्त किये हैं। इन उपमानों के अतिरिक्त कवि गुणवाचक, क्रियावाचक और मानसिक अवस्थावाचक शब्दों का प्रयोग कर भी विरह की स्थिति पर प्रकाश डाला है। गोरोअणा कुकुमवण्णा' (४।३६), 'दिट्ठी' (४।३२), 'सिक्खिउ' (४।३२) जैसे गणवाचक एवं क्रियावाचक शब्दों से भावों को गतिशील बनाया है। मानसिक अवस्था की अभिव्यक्ति
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पावन अभियापार्यप्रवर अभिनय श्रीआनन्द अन्यश्रीआनन्दग्रन्थ
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