Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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अपभ्रंश में वाक्य-संरचना के साँचे
निश्चित व्यवस्था है । अन्त:केन्द्रित (endocentric) और बहिष्केन्द्रित (exocentric) दोनों ही प्रकार की वाक्य-संरचनाएँ प्राकृत, अपभ्रंश में मिलती हैं । मूल वाक्य सरल होते हैं, जटिलता विशेषण पदबन्धों अथवा क्रिया पदबन्धों के समायोजन से उत्पन्न होती है।
डॉ० भोलाशंकर व्यास ने 'संस्कृत का भाषा-शास्त्रीय अध्ययन' ग्रन्थ में संस्कृत भाषा के 'वाक्य' पर भी विचार किया है। उन्होंने प्रासंगिक रूप से अपभ्रंश की वाक्यरचना के विषय में लिखा है"प्राकृत में वाक्य-रचना संस्कृत परिपाटी का पालन करती है । परन्तु अपभ्रंश में कर्ता, कर्म, करण आदि कारकों के लिए एक निश्चित स्थान रह गया ।" डॉ० व्यास का यह कथन व्यापकतः प्रवृत्त नहीं होता, जैसा कि आगे प्रस्तुत उदाहरणों से स्पष्ट हो गया । अपभ्रंश की वाक्यरचना में कर्ता, कर्म, करणादि का एक निश्चित स्थान नहीं है । हाँ, वाक्य-संरचना में कुछ साँचों (Patterns) का आवर्तन अवश्य मिलता है। यह "कुछ साँचों" का आवर्तन तो प्रत्येक भाषा में होता है, किसी भी भाषा में असंख्य साँचे नहीं होते । मानव-मस्तिष्क कतिपय मूल साँचों को स्मरण रखता है, उन्हीं के आधार पर किञ्चित हेर-फेर कर असंख्य साँचे बना लेता है। अतः प्राकृत-अपभ्रंश में भी कुछ साँचे हैं, संस्कृत में भी हैं। प्रत्येक कवि अथवा लेखक के कुछ विशेष साँचे होते हैं जो उस कवि विशेष के सन्दर्भ में शैलीचिन्हक (style marker) कहलाते हैं । संस्कृत में काल और लंकार का विशेष प्रयोग निश्चित था। संज्ञा की भाँति सर्वनाम और विशेषण प्रयुक्त होते थे । कर्मवाच्य में कर्ता के लिए तृतीया का प्रयोग होता है, कर्तृवाच्य में कर्ता के लिए प्रथमा का । "जहाँ सत्तार्थक क्रिया का वर्तमाने प्रयोग होता है यह क्रिया प्रयुक्त नहीं होती। किन्तु ऐसी दशा में उद्देश्य को विधेय के पूर्व रखते हैं। जैसे 'स: पुरुषः शूरः' में 'अस्ति' की अपेक्षा है, 'शूरः : पुरुषः' में अस्ति की आवश्यकता नहीं है । इस प्रकार के प्रयोगों में विशेषक सर्वनाम का प्रयोग सदैव होता है।" प्राकृत-अपभ्रंश में भी यह प्रवृत्ति है। प्रस्तुत प्रसंग में, अपभ्रंश में उपलब्ध कतिपय वाक्य-संरचनाओं को परीक्षणार्थ उपस्थित किया जा रहा है। इनसे अपभ्रंश की वाक्यविन्यास-व्यवस्था का स्वरूप प्रकट होता है। आधुनिक आर्यभाषाओं में अयोगात्मकता के कारण वाक्य । में पदों का स्थान निश्चित है। हिन्दी में नियमत: पहले कर्ता, फिर कर्म, अन्त में क्रिया आती है। काव्यभाषा में क्रम का व्यत्यय होता है, पर सामान्य कथन में स्थान निश्चित ही है। अपभ्रंश को कर्तृवाच्य संरचनाएँ
अपभ्रंश में सामान्य वाक्य कर्ता+कर्म+क्रिया अथवा कर्ता+क्रिया ही होता है। परन्तु संयोगात्मक होने के कारण अन्य क्रम भी दिखलाई पड़ते हैं। स्वयंभूदेव रचित 'पउमचरिउ' में ऐसे प्रयोग शतशः हैं।
'पभणइ सायरबुद्धि भडारउ'--(१)[पउमचरिउ २१ वीं सन्धि] उपर्युक्त वाक्य में एक क्रिया है 'पभणइ' और 'सायरबुद्धि भडारउ' कर्ता है। यह कर्ता और क्रिया से युक्त लघुतम वाक्य है । 'भट्टारक' (भडारउ) भी हटाया नहीं जा सकता। क्योंकि प्रस्तुत प्रसंग में यह 'सायरबुद्धि' के विशेष अर्थ का वाचक है। इसलिए पूरे 'सायरबुद्धि भडारउ' को कर्ता मानना होगा । तब इस सामान्य वाक्य की संरचना होगी
题
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M.50
पापा श्रीआनन्द
अभिशापार्यप्रवर अभः
-श्रीआनन्दैन्थ
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