Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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आचार्यप्रवर
जाचार्यप्रव233 श्रीआनन्दग्रन्थश्राआनन्द
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प्राकृत भाषा और साहित्य
की उपादेयता निकारी नहीं जा सकती। वस्तुस्थिति का ज्ञान ही प्रतिफल का मूल कारण होता है। ऊपर बतायी हई अक्षरों की शक्तियाँ आध्यात्मिक व भौतिक दोनों प्रकार की हैं। ये शक्तियाँ अन्तरदृष्टा के लिए जहाँ ऊँचे से ऊँचा मार्गदर्शन कर सकती हैं वहाँ बाह्य जगत में विहरण करने वालों के लिए भी बहुत कुछ मार्गदर्शन कर सकती हैं परन्तु दोनों ही स्थितियों के लिए यथार्थ ज्ञान अपेक्षित है। जैसे प्रकाश के अभाव में पड़ी हुई वस्तु भी उपयोगी नहीं बन सकती, वैसे ही यथार्थ ज्ञान के अभाव में शक्तियों का प्रतिफल पाना अशक्य है । इसीलिए तो कहा है—“योजकस्तत्र दुर्लभः"-वस्तु का अभाव नहीं, वस्तु की प्राप्ति दुर्लभ है, संयोजन दुर्लभ है। मंत्र-शक्ति अक्षरों की संयोजना का रूप है, श्रुतज्ञान की साक्षात्कार उपलब्धि है।
बीजाक्षरों का सामर्थ्य-मन के साथ जिन ध्वनियों का घर्षण होने से दिव्य ज्योति प्रकट होती है उन ध्वनियों के समुदाय को मंत्र कहा जाता है। मंत्र शब्द का दूसरा अर्थ है-मन्धातु (दिवादि ज्ञाने) से त्र प्रत्यय लगाकर बनाया जाता है। इसका व्युत्पत्ति के अनुसार अर्थ होता है.-"मन्यते ज्ञायते आत्मादेशोऽनेन इति मंत्रः" अर्थात जिसके द्वारा आत्मा का आदेश-निजानुभव जाना जाय वह मंत्र है। मंत्र और विज्ञान दोनों में बड़ा अन्तर है, क्योंकि विज्ञान के प्रयोग का एक ही प्रतिफल निकलता है, जबकि मंत्र की यह स्थिति नहीं है, उसकी सफलता साधक और साध्य पर निर्भर है, ध्यान के अस्थिर होने से भी मंत्र असफल हो जाता है। मंत्र तभी सफल होता है जहाँ श्रद्धा, इच्छा और दृढ़ संकल्प ये तीनों ही यथावत् कार्य करते हों। मनोविज्ञान का सिद्धान्त है कि मनुष्य के अवचेतन मन में बहत-सी आध्यात्मिक शक्तियाँ भरी रहती हैं, इन्हीं शक्तियों को मंत्र द्वारा प्रयोग में लाया जाता है। मंत्र की ध्वनियों के संघर्षण द्वारा आध्यात्मिक शक्ति को उत्तेजित किया जाता है । इस कार्य में अकेली विचारशक्ति ही काम नहीं करती है, इनकी सहायता के लिए उत्कट इच्छा शक्ति के द्वारा ध्वनि-संचालन की भी आवश्यकता होती है। मंत्रशक्ति के प्रयोग की सफलता के लिए मानसिक योग्यता प्राप्त करनी पड़ती है, जिसके लिए नैष्ठिक आचार की भी आवश्यकता होती है। मंत्र निर्माण के लिए ऊँ, हां, ह्रीं, ह्रह्रौं, ह्रः, हा, ह, सः क्लीं क्ल ट्रा, ट्री, ट्रः श्रीं क्षीं क्ष्वीं, क्वीं है अं, फट, वषट्, सवौषट्, धे, धै, यः ठः खः ह, ल्वयं पं बं यं झं तं यं दं आदि बीजाक्षरों की आवश्यकता होती है। साधारण व्यक्ति के लिए ये बीजाक्षर निरर्थक प्रतीत होते हैं, किन्तु ये सभी सार्थक हैं और इनमें ऐसी शक्ति अन्तनिहित है कि जिसमें आत्मशक्ति या देवताओं को उत्तेजित किया जा सकता है। अतः ये बीजाक्षर अन्तःकरण और वत्ति की शुद्ध प्रेरणा के व्यक्त शब्द हैं जिनसे आत्मविकास किया जा सकता है।
विचारशक्ति और विद्य त-लहर--बीजाक्षरों में सबसे महत्वपूर्ण तथा प्रधान ॐ बीज है। यह आत्मवाचक मूलभूत है। ॐकार को तेजोबीज, कामबीज और भवबीज माना गया है तथा प्रणव वाचक भी कहा जाता है। श्री को कीर्तिवाचक, ह्रीं को कल्याणवाचक, क्वीं को शान्तिवाचक, ह को मंगलवाचक, क्ष्वी को योगवाचक, ह्रको विद्वेष और रोषवाचक, प्रों प्रीं को स्वतन्त्रवाचक और क्लीं को लक्ष्मीप्राप्ति वाचक कहा गया है। ये सभी बीजाक्षर मन्त्रों के सूक्ष्मातिसूक्ष्म रूप हैं। इनका बार-बार
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