Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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प्राकृत भाषा : उद्गम, विकास और भेद-प्रभेद
र भद-प्रभद
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पर कुछ का प्रयोग है। और भी इस प्रकार प्राकृत में अन्त्य व्यंजन का सर्वत्र लोप होता है। जैसेयावत् =जाव, तावत्=ताव, यशस्=जसो, तमस् = तमो ।
वैदिक साहित्य में हमें यत्र-तत्र ऐसी प्रवृत्ति दृष्टिगोचर होती है। जैसे--पश्चात् के लिए पश्चा (अथर्ववेद संहिता १०-४-११) उच्चात् के लिए उच्चा (तैत्तिरीय संहिता २-३-१४), नीचात् के लिए नीचा (तैत्तिरीय संहिता ४-५-६१) ।
प्राकृत में संयुक्त य, र, व, श्, ष, स् का लोप हो जाता है और इन लुप्त अक्षरों के पूर्व के हस्व स्वर का दीर्घ हो जाता है। जैसे-पश्यति =पासह, कश्यपः =कासवो, आवश्यकम = श्यामा सामा, विश्राम्यन्ति-वीसमइ, विश्राम:=विसामो, मिश्रम् =मीसं, संस्पर्शः=संफासो, प्रगल्भ = पगल्भ, दुर्लभ = दुल्लह ।
वैदिक भाषा में भी हमें इस कोटि के प्रयोग प्राप्त होते हैं। जैसे अप्रगल्भ=अपगल्भ (तैत्तिरीय संहिता ४-५-६१), त्र्यचत्रिच (शतपथ ब्राह्मण १-३-३-३३), दुर्णाश-दुणाश (शुक्लयजुः प्रातिशाख्य ३-४३)।
प्राकृत के संयुक्त वर्णों के पूर्व का दीर्घ स्वर ह्रस्व हो जाता है । जैसे ताम्रम् = तम्बं, विरहाग्निः = विरहगी, आस्यं = अस्सं, मुनीन्द्रः-मुणिन्दो, तीर्थम् =तित्थं, चूर्णः चूण्णो इत्यादि ।
वैदिक संस्कृत में भी ऐसी प्रवृत्ति प्राप्त होती है। जैसे--रोदसीप्रा-रोदसिप्रा (ऋग्वेद १०-८८-१०) अमात्र=अमत्र (ऋग्वेद ३-३६-४.)
प्राकृत में संस्कृत के द के बदले पर अनेक स्थानों पर ड होता है। जैसे—दशनम् = डसणं, दृष्ट: डट्टो, दग्धः= डड्ढो, दोला-डोला, दण्ड=डण्डो, दरः=डरो, दतः=डाहो, दम्भः-डम्भो, दर्भः =डभो, कदनम् = कडणं, दोहदः-डोहलो।
वैदिक संस्कृत में भी यत्रतत्र इस प्रकार की स्थिति प्राप्त होती है। जैसे—दुर्दम=दूडम (वाजसनेय संहिता ३।३६), पुरोदास=पुरोडाश (शुक्लयजुः प्रतिशाख्य ३।४४)।
१. अन्त्यव्यञ्जनस्य ।।१।११
शब्दानां यद् अन्त्यव्यञ्जनं तस्य लुग भवति । २. लुप्त य-र-व-श-ष-सां दीर्घः ।।१।४३। (सिद्धहैमशब्दानुशासन)
प्राकृतलक्षणवशाल्लुप्ता याद्या उपरि अधो वा येषां शकार षकार सकाराणां तेषामादेः स्वरस्य
दीर्घो भवति। ३. ह्रस्व: संयोगे ।८।१८४
दीर्घस्य यथादर्शनं संयोगे परे ह्रस्वो भवति । ४. दशन-दष्ट-दग्ध-दोला-दण्ड-दर-दाह-दम्भ-दर्भ-कदन-दोहदे दो वा ड: ।।१।२१७
एषु दस्य डो वा भवति ।
N.
आप
आभन्दा आनन्द
पाय -
श्रीआनन्द
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