Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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आचार्मप्रवासी श्रीआनन्दग्रन्थ श्रीआनन्दग्रन्थ
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प्राकृत भाषा और साहित्य
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में कौन-सी धातु का आदेश होता है, इसका विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। यह प्रकरण बहुत ही महत्त्वपूर्ण है।
नवम परिच्छेद में १८ सूत्र हैं। यह परिच्छेद निपात का है। इसमें अव्ययों के अर्थ और प्रयोग दिये गये हैं।
दसवें परिच्छेद में १४ सूत्र हैं। इसमें पैशाची भाषा का अनुशासन है। ग्यारहवें परिच्छेद में १७ सूत्र हैं। इसमें मागधी प्राकृत का अनुशासन है। बारहवें परिच्छेद में ३२ सूत्र हैं। इसमें शौरसेनी भाषा के नियम दिये हैं।
प्रारम्भ के ६ परिच्छेद माहाराष्ट्री के हैं, १०वा पैशाची का है, ११वां मागधी का और १२वाँ शौरसेनी का है।
कुछ इतिहासकारों का मत है कि-अन्तिम तीन परिच्छेद भामह अथवा किसी अन्य टीकाकार ने लिखे हैं। प्राकृतसंजीवनी और प्राकृतमंजरी में केवल महाराष्ट्री का ही वर्णन है। सम्भव है कि ये तीन परिच्छेद हेमचन्द्र के पूर्व ही सम्मिलित कर लिए गये होंगे।
वररुचि का प्राकृतप्रकाश भाषाज्ञान की दृष्टि से बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। संस्कृत भाषा की ध्वनियों में किस प्रकार के ध्वनि-परिवर्तन होने से प्राकृत भाषा के शब्द रूप बनते हैं, इस विषय पर इसमें विस्तृत प्रकाश डाला गया है। प्राकृत अध्ययन के लिए यह ग्रन्थ अत्यन्त उपयोगी है।
वररुचि का समय लगभग छठी शताब्दी माना जाता है। चण्ड का समय तीसरी, चौथी शताब्दी माना जाता है। इससे स्पष्ट है कि वररुचि के प्राकृतप्रकाश से पूर्व चण्ड का प्राकृतलक्षण होगा ।
(२) प्राकृतलक्षण—यह रचना चण्ड कृत है । कुछ विद्वान् वररुचि के प्राकृतप्रकाश को प्रथम मानते हैं और कुछ विद्वान् चण्ड के प्राकृतलक्षण को प्रथम मानते हैं। परन्तु सम्भव है की यही प्रथम होगा। डॉ० पिशल जैसे अनेक विद्वान प्राकृत लक्षण को पाणिनीकृत कहते हैं। परन्तु आजकल यह ग्रन्थ उपलब्ध न होने से निश्चित कुछ नहीं कह सकते।
प्राकृतलक्षण यह संक्षिप्त रचना है। इसमें सामान्य प्राकृत का जो अनुशासन है, वह प्राकृत अशोक की धर्मलिपि जैसी प्राचीन भाषा प्रतीत होती है। वररुचि के प्राकृतप्रकाश की प्राकृत उसके पश्चात् की प्रतीत होती है।
वीर भगवान को नमस्कार करके चण्ड ने इस व्याकरण की रचना की है। इस व्याकरण के अध्ययन से ऐसा प्रतीत होता है कि उस समय प्राकृत में आज की भाँति अनेक भेद नहीं थे।
डॉ० हार्नल ने ई० स० १८८० में कलकत्ता में कलकत्ता से अनेक प्राचीन प्रतियों की तुलना करके इसकी प्रति छपाई थी। उससे अनेक बातों की जानकारी प्राप्त की जा सकती है, परन्तु आज वह भी अनुपलब्ध है।
इस व्याकरण में चण्ड ने बताया है कि मध्यवर्ती अल्पप्राण व्यंजनों का लोप नहीं होता है, वे वर्तमान रहते हैं।
इस ग्रन्थ में कुल ६६ या १०३ सूत्र हैं। वे चार पादों में विभक्त हैं। आरम्भ में प्राकृत शब्दों के
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