Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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प्राकृत भाषा और साहित्य
जून ७१ अंक में संक्षिप्त प्रकाश डाला है। इसका सम्पादन करने के लिए मुनिश्री नथमलजी को इसकी कॉपी दी गई है । प्राकृत का यह सूत्र ग्रन्थ छोटा-सा है पर हमें इससे यह प्रेरणा मिलती है कि अन्य ज्ञान-भण्डारों में भी खोजने पर ऐसी अज्ञात रचनाएँ और भी मिल सकेंगी।
हवीं शती के जैनाचार्य बप्पभट्रिसूरि के 'तारागण' नामक ग्रन्थ का प्रभावक-चरित्र आदि में उल्लेख ही मिलता था पर किसी भी भण्डार में कोई प्रति प्राप्त नहीं थी, इसकी भी एक प्रति मैंने खोज निकाली है। वैसे बहुत वर्ष पहले इसकी यह प्रति अजीमगंज में यति ज्ञानचन्द जी के पास मैंने देखी थी पर फिर प्रयत्न करने पर भी वह मिल नहीं सकी थी। गतवर्ष अचानक बीकानेर के श्रीपूज्यजी का संग्रह जो कि राजस्थान प्राच्यविद्याप्रतिष्ठान की बीकानेर शाखा में दे दिया गया है, उसमें यह प्रति मिल गई, तो उसका विवरण मैंने 'वीरवाणी' में तत्काल प्रकाशित कर दिया। उसकी रचना पढ़ते ही मुझे डा० ए० एन० उपाध्याय ने पत्र लिखा और उन्होंने फोटो-प्रति करवा ली है। इसी तरह ३० वर्षपूर्व भारत के प्राकृत जैनेतर कामशास्त्र की एक भाग अपूर्ण प्रति मुझे अनूप संस्कृत लाइब्रेरी में प्राप्त हई थी। प्राकृत भाषा के इस एकमात्र कामशास्त्र का नाम है 'मदनमुकुट'। यह गोसल ब्राह्मण ने सिन्ध के तीरवर्ती माणिक महापुर में रचा था। इसका विवरण मैंने तीस वर्ष पहले "भारतीय विद्या" वर्ष २, अंक २ में प्रकाशित कर दिया था। उस समय की प्राप्त प्रति में तीसरे परिच्छेद की पैतीस गाथाओं तक का ही अंश मिला था । अभी दो-तीन वर्ष पहले जब मैं ला० द. भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर, अहमदाबाद का संग्रह देख रहा था तो मुझे इसकी पूरी प्रति प्राप्त हो गई, जो सम्वत् १५६९ की लिखी हुई है । इसके अनुसार यह प्राकृत कामशास्त्र छ: परिच्छेदों में पूर्ण होता है। जैनेतर कवि के रचित प्राकृत के इस एकमात्र कामशास्त्र को शीघ्र प्रकाशित करना चाहिए।
प्राकृत की भाँति अपभ्रंश साहित्य का कई दृष्टियों से बहुत ही महत्व है, पर अभी तक इस दृष्टि से अध्ययन एवं मूल्यांकन नहीं किया गया है। अन्यथा जिस प्रकार प्राचीन भारतीय संस्कृति, साहित्यिक परम्परा और भाषाविज्ञान की दृष्टि से संस्कृत साहित्य का आलोचनात्मक एवं सांस्कृतिक अध्ययन किया गया व किया जाता रहा है, उसी तरह प्राकृत, अपभ्रंश साहित्य का भी होता है । जैसा कि पहले बतलाया गया है, लोक भाषाओं का उत्स प्राकृत भाषा में ही है। हजारों लोकप्रचलित शब्द, प्राकृत से अपभ्रंश में होते हुए वर्तमान रूप में आये हैं और कई शब्द तो ज्यों-के-त्यों वर्षों से प्रयुक्त होते आ रहे हैं । कई व्याकरण के प्रत्यय आदि भी प्रान्तीय भाषा में प्राकृत से सम्बन्धित सिद्ध होते हैं। इस सम्बन्ध में अभी एक विस्तृत निबन्ध 'श्रमण' में छपा है । 'जैन भारती' में प्रकाशित तेरापन्थी साध्वी के लेख में
और पं० बेचरदास जी आदि के ग्रन्थों में ऐसे सैकड़ों शब्द उद्धृत किये गये हैं, जिनका मूल संस्कृत में न होकर प्राकृत में है । जैन-आगमों में प्रयुक्त हजारों शब्द सामान्य परिवर्तन के साथ आज भी प्रान्तीय भाषाओं में बोले जाते हैं।
प्राकृत जनभाषा थी, इसलिए जनता में प्रचलित अनेक काव्य विधाएँ एवं प्रकार अपभ्रंश और प्रान्तीय भाषा में अपनाये गये । सैकड़ों व हजारों कहावतें एवं मुहावरे भी प्राकृत ग्रन्थों में मिलते हैं एवं
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