Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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प्राकृत भाषा और साहित्य
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- इसी प्रकार की एक अन्य रचना वररुचि के 'प्राकृत प्रकाश' और त्रिविक्रम के 'प्राकृत व्याकरण' के विषयों को स्पष्ट करने के लिए 'सिरिचिधकाव्य' की निमिति कवि सार्वभौम श्रीकृष्ण लीलाशूक ने की है। इस कवि का अपर नाम 'गोविन्दाभिषेक' भी है। इसकी रचना कवि केवल नौ सर्गों तक ही कर पाया था, अतः शेष चार सर्गों की रचना इसके टीकाकार श्री दुर्गाप्रसाद यति ने की है। इसमें कुछ आकार-चित्रों को स्थान मिला है।
जगच्चन्द्रसूरि के शिष्य देवचन्द्रसूरि (सन् १२७० ई०) ने 'सुदंसणाचरिय' की रचना में अध्ययनशाला से पढ़कर आई हुई राजकन्याओं से उनकी परीक्षा के निमित्त 'कट-प्रश्न' किये हैं, जो 'गूढ़चित्र' के उदाहरण हैं। सुमतिसूरि (१४वीं शती) ने 'जिनदत्ताख्यानद्वय की तथा रत्नशेखरसुरि के शिष्य हेमचन्द्र (सन् १३७१ ई०) ने 'सिरिवाल-कहा' की रचना की है। इनमें प्रहेलिकाओं तथा समस्यापूर्तियों को प्रश्रय मिला है। श्री जयवल्लभ द्वारा संगृहीत 'वज्जालगं' में अनुप्रासादि शब्दालङ्कारों का पर्याप्त विकास दिखाई देता है । यथा
कह सा न संभलिज्जइ, जा सा निसास सोसिसा सरीरा।
आसासिज्जई सासो जाव न सा सा समप्पंति ।। यहाँ मूलभाव को अनुप्रास और यमक की योजना से व्यक्त किया गया है।
यमककाव्यों की परम्परा का पोषण करते हए श्रीकण्ठ कवि ने 'सौरिचरिय' नामक काव्य की रचना द्वारा एक अभिनव प्रयास किया है । इसकी प्रत्येक गाथा में श्रीकृष्ण के चरित्र का चित्रण करते हए 'यमकालङ्कार' का आश्रय लिया है। यथा
रअ रुइरंगं ताणं घेत्तूण व अंगणंमि रंगताणं ।
चुंबइ माआमहिआ बल-कण्हाणं मुहाई माआमहिआ॥ यहाँ धूलि-धूसरित अङ्गवाले, आँगन में रेंगते हुए बलदेव और कृष्ण को उठाकर पूजनीय माता यशोदा उन्हें चूमने लगी और वह माया के वश में हो गई। यह वर्णन बड़े ही प्रासादिक ढंग से हुआ है तथा 'पादान्तयमक' की योजना भी उत्तम हुई है। वहीं एक अन्य पद्य इस प्रकार है
जो णिच्चो राअंतो रमावई सोविगव्व चोराअंतो।
वह बहु बद्धो बंतो सद्दोव्व ठिइच्चुओ अबद्धोसंतो॥ यहाँ 'जो कृष्ण नित्य शोभा को प्राप्त होते हए, गायों के दूध की चोरी करते हुए व्रज-वनिता यशोदा के द्वारा ओखली से बांध दिये गये थे, फिर भी वे शान्त रहे, मर्यादा से च्युत शब्द की भाँति वे अबद्ध ही रहे।' इस कथन के साथ-साथ पूर्वार्ध और उत्तरार्ध में 'अन्त्ययमक' का निर्वाह दर्शनीय है। चित्रालङ्कारमय प्राकृतस्तोत्रसाहित्य ।
चित्रालङ्कार वर्णादि को आकार में लिखे जाते और वर्णों की विभिन्न आवत्तियों के आधार पर स्फुरित होते हैं । शब्दालङ्कार के अन्य भेदों का जहाँ विभिन्न रूप से विकास देखा जाता है, वहीं इस भेद की भी विस्तृति आश्चर्यजनक रूप में हुई है। वाग्विकल्प के जो अनन्त प्रकार हैं, उनका अभिनव रूप इस
जया
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