Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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प्राकृत-वाङमय में शब्दालंकार
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तत्कालीन गुप्त और वाकाटक नपतियों के प्रशासनिक महत्त्व एवं व्यापारिक उन्नति के कारण संस्कृतवाङ्मय के साथ-साथ प्राकृत-वाङ्मय में जो उत्क्रान्ति आयी थी, उसका प्रतीत बन गया है। इस काव्य में भाव एवं अभिव्यंजना पक्ष को सन्तुलित रखते हुए रामकथा के वर्णन में अनुप्रास, यमक और श्लेषालंकार को पर्याप्त स्थान मिला है। इसी शती में महाकवि भारवि का किरातार्जुनीय भी लिखा गया था। अतः उसकी रचना का तथा तत्कालीन रचना-पद्धति का इस काव्य पर बहुत प्रभाव पड़ा है। प्राकृत-साहित्य में सेतुबन्ध-काव्य अपने ढंग का एक अनूठा काव्य है।
महाराष्ट्री प्राकृत में रचित यह काव्य 'रावणवध' अथवा 'दशमुखवध' नाम से भी प्रख्यात है। महाकाव्यों की परम्परा में प्रथम होने के कारण उत्तरवर्ती न केवल प्राकृत के कवियों ने अपितु संस्कृतकाव्यकारों ने भी श्री प्रवरसेन का नाम बड़े आदर से लिया है।
इनके पश्चात् नवीं शती में श्री जयसिंह सूरि ने 'धर्मोपदेशमाला विवरण' की रचना की। श्रीसूरि अलङ्कार-शास्त्र के अच्छे पण्डित थे । अतः इस ग्रन्थ में उन्होंने अनुप्रासादि शब्दालङ्कारों के साथसाथ चित्रालङ्कार को अधिक प्रश्रय दिया है । 'प्रश्नोत्तर, पादपूर्ति, वक्रोक्ति, गूढोक्ति' आदि के अतिरिक्त पुष्पचूला की कथा में विभिन्न भाषा के 'प्रश्नोत्तरों' का प्रयोग भी किया है। संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, पैशाची और मागधी भाषा में 'मध्योत्तर, बहिरुत्तर, एकालापक, गतप्रत्यागत' नामक चित्र-भेदों का प्रयोग इनकी अपनी विशेषता है। उदाहरणार्थ देखिये
कां पाति न्यायतो राजा विश्रसा बोध्यते कथम् । टवर्गे पञ्चमे को वा राजा केन विराजते ॥ धरणेदो कं धारेह केण व रोगेण दोब्बला होति ।
केण व रायह सेमान, पडिवयणं 'कुञ्जरेणे' ति ॥ यहाँ संस्कृत और प्राकृत दोनों का एक ही उत्तर-'कुञ्जरेण' कहा गया है। यथा-(१) कुंपृथिवीम्, (२) जरेण-वृद्धेन, (३) ण, (४) कुञ्जरेण, (५) कु, (६) जरेण-वृद्धावस्थया, (७) कुञ्जरेण । इत्यादि।
इसी प्रकार जिनेश्वरसूरि के शिष्य धनेश्वरसूरि (सन् १०३८) ने 'सुरसुन्दरी-चरिय' का निर्माण किया, जिसमें क्रीडा-विनोद के अवसर पर 'प्रश्नोत्तर-चित्र' का उपयोग किया है। संस्कृत की अपेक्षा प्राकृत को सहज-प्राप्त सौविध्य के आधार पर संस्कृत का एक शब्द प्राकृत में तीन चार अर्थों का बोधक बन जाता है, क्योंकि उसका रूप संस्कृत में विभिन्न रूपों में बन जाता है। जैसे 'ससंक' शब्द का संस्कृत रूप 'शशाङ्क' और 'सशङ्क' सहज हो सकता है।
१२वीं शती के आरम्भ में आचार्य हेमचन्द्र ने 'द्वयाश्रय-काव्य' की रचना की थी। जिसमें कुमारपाल का चरित्र और सिद्ध-हैमव्याकरण के नियमों का ज्ञापन किया है तथा इसी के द्वितीय भाग में प्राकृत, शौरसेनी, मागधी, पैशाची, चूलिका-पैशाची और अपभ्रंश के व्याकरण का समन्वय श्लेष अलङ्कार के आश्रय से करते हुए कुमारपाल का वर्णन किया है।
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श्रीआनन्दा अभिपायप्रवरत प्रामान्य ग्रन्थ श्रीआनन्द आमाकन
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