Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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प्राकृत वाङमय में शब्दालंकार
६१
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विधा में मुखरित हुआ है । स्तुति-स्तोत्ररूप वर्ण्यतत्त्व, सर्वजनसुलभ प्राकृत-भाषा और चित्रालङ्कार इन । तीनों का एक अपूर्व संगम होने से प्राकृत-वाङमय का भाण्डार कई दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण बन गया है। इस प्रकार का साहित्य पर्याप्त उपलब्ध है, उसमें से उदाहरण के रूप में कुछ स्तोत्रों का परिचय यहाँ दिया जा रहा है।
छठी शताब्दी के निकट महर्षि नन्दिषेण ने 'अजियसंति-थय' नाम से एक चित्रस्तोत्र की रचना की। इस स्तोत्र में विविध छन्दों का प्रयोग हआ है तथा चित्र-बन्धों की दृष्टि से—(१) रसपद, (२) तालवृन्त, (३) भृङ्गार, (४) व्यंजन, (५) स्वस्तिक, (६) मत्स्ययुगल, (७) दर्पण, (८) श्रीवत्स, (६) वापिका, (१०) दीपिका, (११) मंगल-कलश, (१२) शरावसम्पुट, (१३) तिलकरत्न, (१४) भद्रासन, (१५) नागपाश, (१६) धूपदानी, (१७) रत्नमाला, (१८) चतुर्दीपका, (१६) मन्थान, (२०) कुम्भ, (२१) गदा, (२२) मयूरकला, (२३) अश्व, (२४) मयूर, (२५) हल, (२६) अष्टारचक्र, (२७) मुकुट, (२८) वीणा, (२६) नरधनुष, (३०) वृक्ष, (३१) ध्वज, (३२) शिखर, (३३) त्रिशूल, (३४) चामर, (३५) सिंहासन, (३६) चतुर्गुच्छ, (३७) कल्पतरु, (३८) अष्टदल-कमल, (३६) मशाल, (४०) नागफणा, (४१) कमल-मालिका तथा (४२) व्यजन-बन्धों की योजना प्राप्त होती है। यद्यपि यह बन्धों की योजना पूर्वाचार्यों द्वारा प्रतिपादित नहीं है किन्तु इसकी भाषागत विशिष्टता के आधार पर मुनिश्री धुरन्धरविजयजी ने यह प्रयास किया है।'
इसी प्रकार जयचन्द्रसूरि के 'पण्ह गम्भ-पंचपरमिट्टिथवण' में (१) शृङ्खला जाति और त्रिगत, (२) पञ्चकृत्वोगति, (३) चतुःकृत्वोगति, (४) गतागत एवं द्विर्गत तथा (५) अष्टदल-कमल बन्ध की योजना की गई है। इनके अतिरिक्त निम्नलिखित प्राकृत-स्तोत्र भी अपनी शब्दालङ्कार पोषक और विशेषतः चित्रालङ्कार-मूलक प्रवृत्तियों के कारण अनुशीलनीय हैं--- (१) मन्त्रगर्भ श्रीपार्श्वजिनस्तवन
-रत्नकीर्तिसूरि (२) मन्त्रगर्भ श्रीपार्श्वप्रभु-स्तवन
—कमलप्रभाचार्य (३) मन्त्रयन्त्रादिभित श्रीस्तम्भन पार्श्वजिन-स्तवन
श्रीपूर्णकलश गणि (४) नवग्रहस्वरूपगर्भ श्रीपार्श्वजिन-स्तवन
-~-अज्ञातकर्तृक (५) अष्टभाषामय सीमन्धरजिन-स्तवन
------श्रीजिनहर्ष (६) अष्टभाषामय सम्यक्त्वरास
----श्रीसंघकलश (७) षड्भाषामय गौडीपार्श्वनाथ-स्तवन
-श्रीधर्मवर्धन
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१. यह पुस्तक प्रकाशनाधीन है तथा लेखक ने इसकी व्यवस्था और योजना में भी सहयोग दिया है। २. यह स्तोत्र बम्बई के 'जैन साहित्य विकास मण्डल' से प्रकाशित 'नमस्कार स्वाध्याय' के प्राकृत
स्तोत्र विभाग में सचित्र मुद्रित है। ३. प्राकृत, मागधी. शौरसेनी, पैशाची, चलिका-पैशाची, अपभ्रंश और संस्कृत भाषा में निर्मित यह
स्तोत्र 'धर्मवर्धन-ग्रन्थावली' 'बीकानेर' में मुद्रित है।
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