Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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0 डॉ० रुद्रदेव त्रिपाठी, आचार्य, एम० ए०, पी-एच० डी०
(प्रवाचक-संस्कृत विद्यापीठ, दिल्ली)
प्राकृत-वाङमय में शब्दालंकार
प्राकृत-वाङमय मानव-जन्म की सफलता उसकी वाणी में केन्द्रित रहती है। इसी वाणी के आश्रय से पठित और अपठित सभी अपने भावों का सम्प्रेषण करते हैं। अन्तर इतना ही रहता है कि पठित व्यक्ति अपनी वाणी को विविक्तवर्णाभरण, सुखश्रति और प्रसन्न गम्भीर पदा के रूप में अभिव्यक्त करके शत्रओं हृदय को अनुराग-रंजित बना देता है, जबकि अपठित अपने लौकिक कार्य-कलाप को भी कठिनाई से चला पाता है । अत: पठितों की वाणी का सर्वत्र समादर स्वाभाविक है।
संस्कृत भाषा की संस्कार-सम्पन्नता का वैशिष्ट्य दिखाकर प्राकृत भाषा को जनसाधारण की भाषा कहने वाले तथा प्राकृत को ही वास्तविक भाषा कहकर संस्कृत को उत्तरवर्ती, संस्कारित भाषा बताने वालों के विवाद में हम तो केवल एक ही समाधान प्राप्त करते हैं, और वह है-अन्योन्याश्रयात्मकता । जैसे "बीज से वृक्ष तथा वृक्ष से बीज" में किसकी प्राथमिकता है ? इसका उत्तर 'अन्योन्याश्रय' है, वैसे ही इस भाषा के विवाद में भी उपर्युक्त उत्तर ही समाधेय है।
वैसे भी चन्द्रावदातमति कवि राजहंस 'ओजस्वी, मधुर, प्रसाद-विशद, संस्कार-शुद्ध, अभिधालक्षणा-व्यजनासंवलित, विशिष्ट रीति, अभिनव अलङ कृति, उत्तम वृत्त एवं रस-परिपाक से समन्वित अपने वाग्व्यवहार द्वारा किसी भी भाषा को भणिति-गुण से अलंकृत कर ही देते हैं' अतः प्राकृत भाषा में ही रचनाएँ प्रस्तुत कर पूर्व मनीषियों ने अनेकविध आनन्द-प्रद साहित्य की सृष्टि की है।
प्राकृतभाषा का क्षेत्र विस्तार भारतीय आर्यभाषा का युग ईसवी पूर्व ५०० से ११०० ईसवी तक माना जाता है। यह युग प्राकृत-भाषाओं का युग था, जिसमें उस काल की सभी जन-साधारण की बोलियाँ आ जाती हैं । संस्कृत भाषा के ध्वनितत्त्व एवं व्याकरण-सम्बन्धी नियमों के परिवर्तन से ये बोलियाँ-पालि, शिलालेखों की प्राकृत, जैन आगमों की अर्धमागधी तथा संस्कृत नाटकों में व्यवहृत प्राकृत पैशाची, महाराष्ट्री, मागधी और शौरसेनी आदि के रूप में यत्र-तत्र साहित्यिक स्वरूप को प्राप्त हुई हैं।
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