Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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प्राकृत भाषा और साहित्य
प्रत्येक काल में रचनागत विशेषताओं के आधार पर साहित्य की सष्टि होती है। तदनुसार प्राकृत भाषा के इस विस्तृत क्षेत्र में जैन आगम, आगमों का व्याख्या-साहित्य, दिगम्बर सम्प्रदाय के प्राचीन शास्त्र, आगमोत्तर जनधर्म सम्बन्धी साहित्य, प्राकृत कथा-साहित्य, प्राकृत चरित साहित्य, प्राकृत काव्य-साहित्य, संस्कृत नाटकों में प्रयुक्त प्राकृत साहित्य, व्याकरण, छन्द, कोष तथा अलंकार ग्रन्थों में प्रयुक्त प्राकृत, उपदेश एवं सुभाषितों के रूप में प्रयुक्त प्राकृत तथा शास्त्रीय प्राकृत-संहिता का समावेश होता है।
शब्दालंकारों के सर्वसामान्य प्रयोग का दर्शन इन सभी वर्गों में किसी-न-किसी रूप में मिल ही जाता है, किन्तु जिन स्वरूपों को कुछ महत्त्वपूर्ण माना जा सकता है उनमें प्राकृत काव्य-साहित्य की प्राथमिकता है। गद्य-साहित्य में ललित वर्णविन्यास--जो कि अनुप्रास के भेद-विभेदों में अनेकत्र उपलब्ध होता है, वह तथा श्लेष अलंकार जो प्राकृत के संस्कृत-रूपों की विविधता के कारण बहुधा अर्थवैविध्य को प्रकट करता है, वह प्रचुर मात्रा में सुलभ है। रचनाओं का वैविध्य
साहित्य परमात्मा के विराट स्वरूप के समान ही अनेक आश्चर्यमय रूपों का आगार है। जैसे गीता में अर्जुन ने विराट रूप का दर्शन करते हुए कहा था कि--'हे देव, मैं आपके शरीर में सभी भूतसघ, ब्रह्मा, विष्णु, शिव, ऋषि, सर्प आदि देखता हूँ। आपके इस शरीर के अनेक हाथ, मुख और आँखें हैं। इसका कोई आदि, मध्य और अन्त नहीं दिखाई देता है। इसी में समस्त देव, गन्धर्व, राक्षस, भूत, प्रत, पिशाच आदि तथा रुद्र, आदित्य, वसु, अश्वनीकुमार प्रभृत्ति समाये हुए हैं।' इत्यादि कथन के अनुरूप ही साहित्य में भी विश्व में प्रचलित सभी कथन-प्रकार व्याप्त हैं। २
साहित्य का अर्थ अत्यन्त व्यापक है किन्तु आलकारिकों ने इसे शब्दार्थ के सहभाव में संकुचित कर लिया है। महाराज भोजदेव ने इसी सहभाव को बारह प्रकारों में विभक्त माना है, जिनमें ग्यारहवां विभाग 'अलंकार-योग' भी है। यह अलंकार-योग गद्य और पद्य में निबद्ध समस्त वाङ्मय
२.
पश्यामि देवास्तव देव देहे सर्वस्तिथा भूतविशेष सङ घान् । ब्रह्माणमीशं कमलासनस्थमृषीश्च सर्वानुरगाँश्च दिव्यान् ।।१५।।
-से ३१ वें पद्य तक श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय ११ द्रष्टव्य । वक्रोक्ति जीवितकार कुन्तक ने 'साहित्य' की परिभाषा इस प्रकार दी हैमार्गानुगुण्यसुभगो माधुर्यादिगुणोदयः । अलङ्करण-विन्यासो वक्रतातिशयान्वितः ।। वृत्तौचित्य मनोहारि रसानां परिपोषणम् । स्पर्धया विद्यते यत्र यथास्वमुभयोरपि । सा काप्यवस्थितिस्तद् विदानन्दस्पन्द सुन्दरा। पदादिवाक्परिस्पन्दसारः 'साहित्यमुच्यते' ।।
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