Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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आपायप्रवर अभिभापार्यप्रवर अनि श्रीआनन्दप्रसन्थ श्रीआनन्द
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प्राकृत भाषा और साहित्य
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वृत्ति की रचना की है। इस वृत्ति का ही नाम प्राकृतरूपावतार रखा है। इसमें सूत्रों का क्रम षड्-भाषाचन्द्रिका के समान ही रखा गया है।।
यह ग्रन्थ सन् १६०६ में इ० हल्शे (E-Hultzsca) ने एशियाटिक सोसाइटी कलकत्ता की तरफ से प्रकाशित किया था। इनका काल १३००-१४०० ई० स. माना जाता है। तुलना की दृष्टि से इसमें प्रत्येक सूत्र के सामने आचार्य हेमचन्द्र के सूत्र भी दिये गये है। युष्मद्, अस्मद् आदि शब्दों के रूप दूसरे व्याकरणों की अपेक्षा से इसमें अधिक विस्तृत हैं। कहीं-कहीं रूपों में कृत्रिमता भी स्पष्ट दिखती है । इस व्याकरण का निर्माण करते समय सिंहराज ने इस बात का विशेष ध्यान रखा है कि कोई भी आवश्यक नियम छूट न जाये । इसलिए उन्होंने आवश्यक सूत्रों को ही लिया है, शेष कुछ सूत्रों को छोड़ दिया है।
(७) प्राकृतकल्पतरु --श्री रामशर्मा तर्कवागीश ने प्राकृतकल्पतरु की रचना पुरुषोत्तम के प्राकृतनुशासन के अनुसार की है । ये बंगाल के निवासी थे। इनका समय ईसा की १७वीं शताब्दी माना जाता है । प्राकृतकल्पतरु पर स्वयं लेखक की एक स्वोपज्ञ टीका भी है।
इस व्याकरण में तीन शाखाएँ हैं । पहली शाखा में दस स्तबक हैं। जिनमें माहाराष्ट्री के नियमों का विवेचन है।
दूसरी शाखा में तीन स्तबक हैं-जिनमें शौरसेनी, प्राच्या, अवन्ती, वाह्नीकी, मागधी, अर्धमागधी और दाक्षिण त्या का विवेचन है। विभाषाओं में शाकारि, चाण्डालिका, शाबरी, अभीरिका और टक्की का विवेचन है।
तीसरी शाखा में नागर, अपभ्रंश, ब्राचड तथा पैशाचिका का विवेचन है। कैकय, शौरसेनी, पांचाल, गोड, मागध और ब्राचड पैशाचिका भी इसमें वर्णन है।
(E) प्राकृतसर्वस्व-श्री मार्कण्डेय कवीन्द्र का 'प्राकृत सर्वस्व' एक महत्त्वपूर्ण व्याकरण है। इसका रचनाकाल १५वीं शताब्दी है । मार्कण्डेय ने प्राकृत भाषा के भाषा, विभाषा, अपभ्रंश और पैशाची ये चार भेद किये हैं।
भाषा के माहाराष्ट्री, शौरसेनी, प्राच्या, अवन्ती और मागधी भेद हैं। विभाषा के शकारी, चाण्डाली, शवरी, अभीरी और ढक्की यह भेद हैं । अपभ्रंश के नागर, ब्राचड और उपनागर तथा पैशाची के कैकयी, शौरसेनी और पांचाली इत्यादि भेद किये हैं।
मार्कण्डेय ने आरम्भ के आठ पादों में महाराष्ट्री प्राकृत के नियम बतलाये हैं। इन नियमों का आधार प्रायः वररुचि का प्राकृतप्रकाश ही है। हवें पाद में शौरसेनी के नियम दिये गये हैं। १० वें पाद में प्राच्या भाषा का नियमन किया गया है। ११वें पाद में अवन्ती और वाह नीकी का वर्णन है । १२वें पाद में मागधी के नियम बतलाये गये हैं। इनमें अर्धमागधी का भी उल्लेख है।
आचार्य श्री हेमचन्द्र ने जिस प्रकार पश्चिमीय प्राकृत भाषा का अनुशासन रचा है, उस प्रकार श्री मार्कण्डेय ने पूर्वीय प्राकृत का नियमन बतलाया है।
मार्कण्डेय ने अपने व्याकरण की रचना आर्या-छन्द में की है। उस पर उनकी स्वोपज्ञ टीका है।
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