Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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प्राकृत भाषा : उद्गम, विकास और भेद-प्रभेद
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मार्कण्डेय ने प्राकृत- सर्वस्व में प्राकृत को सोलह भेदोपभेदों में विभक्त किया है। उन्होंने प्राकृत को भाषा, विभाषा, अपभ्रंश और पैशाच इन चार भागों में बाँटा है। इन चारों का विभाजन इस प्रकार है
(१) भाषा - महाराष्ट्री, शौरसेनी, प्राच्या, अवन्ती और मागधी ।
(२) विभाषा -- शाकारी, चाण्डाली, शबरी, आभीरिका और टाक्की ।
(३) अपभ्रंश - नागर, ब्राचड तथा उपनागर ।
(४) पैशाच - कैकय, शौरसेन एवं पाञ्चाल ।
नाट्यशास्त्र में विभाषा के सम्बन्ध में उल्लेख है कि शकार, अभीर, चाण्डाल, शबर इमिल, आन्ध्रोत्पन्न तथा वनेचर की भाषा द्रमिल कही जाती है ।
मार्कण्डेय ने भाषा, विभाषा आदि के वर्णन के प्रसंग में प्राकृत चन्द्रिका के कतिपय श्लोक उद्धृत किये हैं, जिनमें आठ भाषाओं, छः विभाषाओं, ग्यारह पिशाच भाषाओं तथा सत्ताईस अपभ्रंशों के सम्बन्ध में चर्चा है । इनमें महाराष्ट्री, आवन्ती, शौरसेनी, अर्द्धमागधी, वालीकी, मागधी, प्राच्या तथा दक्षिणात्या ये आठ भाषाएँ, छः विभाषाओं में से द्राविड़ और ओढूज ये दो विभाषाएँ, ग्यारह पिशाच भाषाओं में से कांचीदेशीय, पाण्ड्य, पाञ्चाल, गौड़, मागध, ब्राचड, दाक्षिणात्य, शौरसेन, कैकय और द्राविड़ ये दश पिशाच भाषाएँ तथा सत्ताईस अपभ्रंशों में ब्राचड, लाट, वैदर्भ बार्बर, आवन्त्य, पाञ्चाल, टाक्क, मालव, कैकय, गौड, उड्डू, द्वंव, पाण्ड्य, कौन्तल, सिंहल, कालिङ्ग, प्राच्य, कार्णाट, काञ्च, द्राविड़, गौर्जर, आभीर और मध्यदेशीय ये तेबीस अपभ्रंश विभिन्न प्रदेशों के नामों से सम्बद्ध हैं । जिनजिन प्रदेशों में प्राकृतों की जिन-जिन बोलियों का प्रचलन था, वे बोलियाँ उन-उन प्रदेशों के नामों से अभिहित की जाने लगीं । इतनी लम्बी सूची देखकर आश्चर्य करने की बात नहीं है । किसी एक ही प्रदेश की एक ही भाषा उसके भिन्न-भिन्न भागों में कुछ भिन्न रूप ले लेती है और उस प्रदेश के नामों के अनुरूप उप-भाषाओं या बोलियों में बहुत अन्तर नहीं होता पर यत्किञ्चित् भिन्नता तो होती ही है । उदाहरण के लिए हम राजस्थानी भाषा को लें। वैसे तो सारे प्रदेश की एक भाषा राजस्थानी है, पर बीकानेर क्षेत्र में जो उसका रूप है, वह जोधपुर क्षेत्र से भिन्न है । जैसलमेर क्षेत्र की बोली का रूप इनसे और भिन्न है । इसी प्रकार चित्तौड़, डूंगरपुर, बांसवाड़ा, अजमेर, मेरवाड़ा, कोटा, बूँदी आदि हाडौती का क्षेत्र, जयपुर या ढूंढाड़ का भाग, अलवर का इलाका, भरतपुर और धौलपुर मण्डल --- इन सब में जनसाधारण द्वारा बोली जाने वाली बोलियाँ थोड़ी बहुत भिन्नता लिए हुए हैं । कारण यह है कि एक ही प्रदेश में बसने वाले लोग यद्यपि राजनैतिक या प्रशासनिक दृष्टि से एक इकाई से सम्बद्ध होते हैं परन्तु उस प्रदेश के भिन्न-भिन्न भू-भागों में पास-पड़ोस की स्थितियों के कारण, अपनी क्षेत्रीय सामाजिक, सांस्कृतिक तथा भौगोलिक भिन्नताओं या विशेषताओं के कारण परस्पर जो अन्तर होता है, उसका उनकी बोलियों पर अलग अलग प्रभाव पड़ता है और एक ही भाषा के अन्तर्गत होने पर भी उनके रूप में, कम ही सही, पार्थक्य आ ही जाता है । ऊपर पिशाच भाषाओं और अपभ्रंशों के जो अनेक भेद दिखलाये
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श्री आनन्दन ग्रन्थ 9 श्री आनन्द
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