Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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जैन-दर्शन का कबीर-साहित्य पर प्रभाव
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सम्बोधित किया है। उनका विश्वास था कि परमात्मा को किसी भी नाम से पुकारा जाय, उसका तात्पर्य केवल अखण्ड अविनाशी ब्रह्म आत्मा या परमात्मा से होगा। ये कवि भेद की संकीर्णता को प्रश्रय नहीं देते । उनका कथन था कि निर्विकल्प 'परमात्मा' ही राम, विष्णु अथवा ब्रह्म है। । योगसार में तो मुनि योगीन्दु यहाँ तक कह गये हैं कि आत्मा ही देव है, अरहंत, सिद्ध है, मुनि है, वही आचार्य, गुरु है, शिव है, वही शंकर है अथवा ब्रह्मा, विष्णु और अनन्त है
अरहंतु वि सो सिद्ध फूड सो आयरिउ वियाणि । सो उवझायउ सो जि मुणि णिच्छइँ अप्पा जाणि ॥१०४॥ सो सिउ संकरू विण्हु सो रुद्द वि सो बुद्ध ।
सो जिणु ईसरु बंभु सो सो अणंतु सो सिद्ध ॥१०५।। निश्चय से आत्मा ही अरहन्त है, वही सिद्ध, आचार्य है और उसे ही उपाध्याय तथा मुनि समझना चाहिये । वही शिव है । वही शंकर एवं विष्णु है । वही रुद्र, बुद्ध, जिन, ईश्वर, ब्रह्मा एवं अनन्त है और उसी को सिद्ध भी कहना चाहिए।
कवि के उक्त कथन का यह अर्थ नहीं कि जैन कवि अवतारवाद के समर्थक थे। इन कवियों ने अवतारवाद का सर्वत्र खण्डन किया है, क्योंकि जिसका जन्म होता है, उसकी मृत्यु भी अनिवार्य है और जो मरणशील है वह अविनाशी एवं अजर-अमर कैसे हो सकता है? तथा जो अविनाशी नहीं है, वह परमात्मा कैसे हो सकता है ? यहाँ यह भी स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि ये कवि जब राम, शिव और ब्रह्मा का नाम लेते हैं, तो उनका तात्पर्य यह नहीं रहा कि वे दशरथसुत 'राम,' कैलासवासी शिव अथवा सृष्टिकर्ता ब्रह्मा या शुद्धोदनपुत्र बुद्ध हैं। वह समस्त नामावली तो आत्मा की ही प्रतीक अथवा पर्यायवाची है। जिसका न आदि है, न अन्त । अनन्त उसके नाम हैं और वह अचिन्त्य है।
कबीरदास भी अवतारवाद के विरोधी थे। उन्होंने भी उस परम ब्रह्म परमात्मा को अनेक नामों से सम्बोधित किया है। अपने इष्ट देव को किसी भी नाम से पुकारने में उन्हें हिचक का अनुभव नहीं हुआ। उनको किसी प्रकार की संकीर्णता मान्य नहीं। किन्तु फिर भी उन्होंने ब्रह्म के आह.वान के लिए सर्वाधिक 'राम' शब्द का प्रयोग किया है । उन्हें परमब्रह्म के अन्य समस्त नामों में यही नाम सर्वाधिक प्रिय रहा है। किन्तु कबीर का वह 'राम' भक्तों का सर्वस्व एवं भूमि का भार-हरण करने के लिये अवतार धारण करने वाला दशरथपुत्र राम नहीं, या यशोदापुत्र कृष्ण नहीं है। उनके 'राम', 'कृष्ण' पौराणिक 'राम' 'कृष्ण' न होकर सबसे भिन्न और सबसे ऊपर परम आत्मा के ही प्रतीक हैं---
नां जसरथ घरि औतरि आवा, नां लंका का राव संतावा । देव कूख न औतरि आवा, ना जसवं ले गोद खिलावा ।। बांवन होय नहीं बलि छलिया, धरनी बेद लेन उघरिया । बद्री बैस्य ध्यान नहीं लावा, परसरोम हवं खत्रीन संतावा ।। कहै कबीर विचार करि, ये ऊलं व्योहार । याही थें जे अगम है, सो बरति रह या संसार ॥४१॥
-कबीर ग्रन्थावली, पृ० ५६३ कबीर की यह मान्यता रही है कि जो जन्म लेता है और मरता है, वह राम नहीं, माया है। समस्त विश्व के नष्ट हो जाने पर भी कबीर का राम अविनश्वर है । वह दूर खोजने की वस्तु नहीं, अपितु सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त है
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आपाप्रवन अभिस
आचार्यप्रवर अभिगमन श्रीआनन्दसन्याश्रीआनन्द अन्य
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