Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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आचार्यप्रवत्र श्राआनन्दा-ग्रन्थश्राआनन्दन्थ५१
प्राकृत भाषा और साहित्य
मार्गप्रवर अभिनय
राजशेखर तथा वाक्पति के कथन पर गौर करना होगा। वे जैन-परम्परा के नहीं थे, वैदिकपरम्परा के थे। जैन लेखक प्राकृत को अपने धर्मशास्त्रों की भाषा मानते हुए अपनी परम्परा के निर्वाह अथवा उसका बहुमान करने की दृष्टि से ऐसा कह सकते हैं, पर जहाँ अजैन विद्वान ऐसा कहते हैं, वहाँ अवश्य कुछ महत्त्व की बात होनी चाहिए।
राजशेखर और वाक्पति का कथन निःसन्देह प्राकृत के अस्तित्व, स्वरूप आदि के यथार्थ अंकन की दृष्टि से है। आचार्य सिद्धर्षि का अभिमत
संस्कृत वाङमय के महान् कथा-शिल्पी आचार्य सिद्धषि ने अपने "उपमितिभवप्रपञ्चकथा" नामक महान संस्कृत कथा-ग्रंथ में भाषा के सम्बन्ध में चर्चा की है, जो प्रस्तुत विषय में बड़ी उपयोगी है । वे लिखते हैं
संस्कृत और प्राकृत-ये दो भाषाएँ प्रधान हैं। उनमें संस्कृत विदग्ध जनों के हृदय में स्थित है । प्राकृत बालकों के लिए भी सद्बोधकर है तथा कर्णप्रिय है। फिर भी उन्हें (दुर्विदग्ध जनों को) प्राकृत रुचिकर नहीं लगती। ऐसी स्थिति में जब उपाय है (संस्कृत में ग्रन्थ रचने की मेरी क्षमता है) तब सभी के चित्त का रञ्जन करना चाहिए। इसी बात को ध्यान में रखते हुए मैं संस्कृत में यह रचना करूंगा।"
जैसा कि उद्धरण से स्पष्ट है, आचार्य सिद्धर्षि संस्कृत को दुर्विदग्ध लोगों के हृदय में स्थित मानते हैं। प्राकृत, उनकी दृष्टि में बालकों द्वारा भी समझे जा सकने योग्य है और कर्णप्रिय है। कोश के अनुसार दुर्विदग्ध' का अर्थ पण्डितंमन्य या विष्ठ है। परंपरया यह शब्द श्रेयान अर्थ में प्रयुक्त नहीं है। इसका प्रयोग दम्मिप्ता या अहंकारिता जैसे कुत्सित अर्थ में है। यद्यपि आचार्य सिद्धर्षि का यह विश्वास था कि प्राकृत सर्वलोकोपयोगी भाषा है पर वे यह भी मानते थे कि पाण्डित्यभिमानी जनों को प्राकृत में रचा ग्रन्थ रुचेगा नहीं। कारण साफ है, उनका समय (१०वी, ११वीं शती) वैसा था, जिसकी पहले चर्चा की है, जब प्राकृत का प्रयोग लगभग बन्द हो चुका था और ग्रन्थकार सिद्धान्ततः प्राकृत की उपयोगिता मानते हए भी संस्कृत की ओर झुकने लगे थे। ऐसा करने में उनका ऐसा आशय प्रतीत
१. संस्कृता प्राकृता चेति, भाषे प्राधान्यमहतः ।
तत्रापि संस्कृता तावविदग्ध हृदि स्थिता ।। बालानामपि सद्बोधकारिणी कर्णपेशला । तथापि प्राकृता भाषा न तेषामपि भासते ।। उपाये सति कर्तव्यं, सर्वेषां चितरञ्जनम् । अतस्तदनुरोधेन संस्कृतेयं करिष्यते ।।
-उपमितिभवप्रपञ्चकथा, प्रथम प्रस्ताव ५१, ५३
२. ज्ञानलवदुर्विदग्धं ब्रह्माऽपि नरं न रञ्जयति ।
-भर्तृहरिकृत नीतिशतक ३
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