Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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प्राकृत भाषा: उद्गम, विकास और भेद-प्रभेद
१३
यद् योनि किल संस्कृतस्य सुदृशां जिह्वासु यन्मोदते, यत्र श्रोत्रपथावतारिणि कटुर्भाषाक्षराणां रसः । गद्यं चूर्णपदं पदं रतिपतेस्तत् प्राकृतं यद्वचः, ताल्लाटॉल्ललिताङ्गिः पश्य नुदती दृष्टेनिमेषततम् ॥
-बालरामायण ४८, ४६ अर्थात् जो संस्कृत का उत्पत्ति-स्थान है, सुन्दर नयनों वाली नारियों की जिह्वाओं पर जो प्रमोद पाती है, जिसके कान में पड़ने पर अन्य भाषाओं के अक्षरों का रस कडुआ लगने लगता है। जिसका सुललित पदों वाला गद्य कामदेव के पद जैसा हृद्य है, ऐसी प्राकृत भाषा जो बोलते हैं, उन लाटदेश (गुजरात) के महानुभावों को हे सुन्दरि ! अपलक नयनों से देख !
इस पद्य में प्राकृत की विशेषताओं के वर्णन के संदर्भ में राजशेखर ने प्राकृत को जो संस्कृत की योनि-प्रकृति या उद्गम-स्रोत बताया है, भाषा-विज्ञान की दृष्टि से वह महत्त्वपूर्ण है।।
गउडवहो में वाक्पतिराज ने प्राकृत की महत्ता और विशेषता के सम्बन्ध में जो कहा है, उसका उल्लेख पहले किया ही जा चका है। उन्होंने प्राकृत को सभी भाषाओं का उद्गम-स्रोत बताया है।
गउडवहो में वाक्पतिराज ने प्राकृत के सन्दर्भ में एक बात और कही है, जो भाषाविज्ञान की दृष्टि से मननीय है। उन्होंने कहा है
"प्राकृत की छाया-प्रभाव से संस्कृत-वचनों का लावण्य उद्घाटित या उद्भाषित होता है। संस्कृत को संस्कारोत्कृष्ट करने में प्राकृत का बड़ा हाथ है।"२
इस उक्ति से यह प्रकट होता है कि संस्कृत-भाषा की विशेषता संस्कारोत्कृष्टता है अर्थात् उत्कृष्टतापूर्वक उसका संस्कार--परिष्कार या परिमार्जन किया हुआ है। ऐसा होने का कारण प्राकृत है। दूसरे शब्दों में प्राकृत कारण है, संस्कृत कार्य है। कार्य से कारण का पूर्वभावित्व स्वाभाविक है।
१. सयलाओ इमं वाया विसंति एतो यन्ति वायाओ। एन्ति समुदं चिय णेन्ति सायराओ च्चिय जलाई।।
-गउडवहो ६३ [सकला एतद् वाचो विशन्ति इतश्च निर्यान्ति वाचः । आयान्ति समुद्रमेव निर्यान्ति सागरादेव जलानि ।
इस भाषा (प्राकृत) में सब भाषाएँ प्रवेश पाती हैं। इसीसे सब भाषाएँ निकलती हैं। पानी समुद्र में ही प्रवेश करता है और समुद्र से ही (वाष्प के रूप में) निकलता है। २. उम्मिलइ लायण्णं पययच्छायाए सक्कयवयाणं । सक्कयसक्कारुक्करिसणेण पययस्स वि पहावो ।।
---गउडवहो ६५ [उन्मील्यते लावण्यं प्राकृत्तच्छायया संस्कृतपदनाम् ।। संस्कृतसंस्कारोत्कर्षणेन प्राकृतस्यापि प्रभावः ।।]
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