Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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प्राकृत भाषा : उद्गम, विकास और भेद-प्रभेद
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होता है कि उनकी रचना विद्वज्जनों में समाहत बने । अतएव संस्कृत, जो (Linguafrance) का रूप लिये हए थी, में रचना करने में उन्हें गौरव का अनुभव होता था। दूसरी बात यह है कि प्राकृत को जो सर्वजनोपयोगी भाषा कहा जाता था, वह उसके अतीत की बात थी। उस समय प्राकृत भी संस्कृत की तरह दुर्बोध हो गई थी। दुर्बोध होते हुए भी संस्कृत के पठन-पाठन की परम्परा तब भी अक्षुण्ण थी। प्राकृत के लिए ऐसी बात नहीं थी, अतः संस्कृत में ग्रन्थ लिखने का कुछ अर्थ हो सकता था। जबकि प्राकृत में लिखना उतना भी सार्थक नहीं था। ऐसे कुछ कारण थे, कुछ स्थितियाँ थीं, जिनसे प्राकृत वास्तव में लोकजीवन से इतनी दूर चली गई कि उसे गृहीत करने के लिए संस्कृत का माध्यम अपेक्षित ही नहीं, आवश्यक हो गया।
संस्कृत को प्राकृत की प्रकृति बनाने में वैयाकरण जिस प्रवाह में बहे हैं, उस स्थिति की एक झलक हमें आचार्य सिद्धर्षि की उपर्युक्त उक्ति में दृष्टिगत होती है।
यही प्रवाह आगे इतना वृद्धिगत हुआ कि लोगों में यह धारणा बद्धमूल हो गई कि संस्कृत प्राकृत का मूल उद्गम है।
पण्डित हरगोविन्ददास टी. सेठ ने प्राकृत की प्रकृति के सम्बन्ध में उक्त आचार्यों के विचारों का समीक्षण और पर्यालोचन करने के अनन्तर प्राकृत की जो व्युत्पत्ति की है, वह पठनीय है। उन्होंने लिखा है-"प्रकृत्या स्वभावेन सिद्ध प्राकृतम्" अथवा "प्रकृतीनां साधारणजनानामिदं प्राकृतम्१ यह वास्तव में संगत प्रतीत होता है। प्राकृत के देश्य शब्द : एक विचार
प्राकृत में जो शब्द प्रयुक्त होते हैं, प्राकृत-वैयाकरणों ने उन्हें तीन भागों में बाँटा है :१. तत्सम, २. तद्भव, ३. देश्य (देशी)।
(१) तत्सम-तत् यहाँ संस्कृत के लिए प्रयुक्त है । जो शब्द संस्कृत और प्राकृत में एक जैसे प्रयुक्त होते हैं, वे तत्सम कहे गये हैं । जैसे—रस, वारि, भार, सार, फल, परिमल, नवल, विमल, जल, नीर, धवल, हरिण, आगम, ईहा, गण, गज, तिमिर, तोरण, तरल, सरल, हरण, मरण, करण, चरण आदि ।
(२) तदभव-वर्गों का समीकरण, लोप, आगम, परिवर्तन आदि द्वारा जो शब्द संस्कृत शब्दों से उत्पन्न हुए माने जाते हैं, वे तद्भव' कहे जाते हैं। जैसे-धर्म=धम्म, कर्म=कम्म, यक्ष=जक्ख,
१. पाइय सद्दमहण्णवो, प्रथम संस्करण का उपोद्घात, पृष्ठ २३ । २. प्राकृत में जो तत्सम शब्द प्रचलित हैं, वे संस्कृत से गृहीत नहीं हैं। वे उस पुरातन लोकभाषा या
प्रथम स्तर की प्राकृत के हैं, जिससे वैदिक संस्कृत तथा द्वितीय स्तर की प्राकृतों का विकास हुआ। अतएव इन उत्तरवर्ती भाषाओं में समान रूप से वे शब्द प्रयुक्त होते रहे। वैदिक संस्कृत से वे शब्द
लौकिक संस्कृत में आये। ३. प्रथम स्तर की प्राकृत से उत्तरवर्ती प्राकृतों में आये हुए पूर्वोक्त शब्दों में एक बात और घटित हुई।
अनेक शब्द, जो ज्यों-के-त्यों बने रहे, तत्सम कहलाये । पर, प्राकृतें तो जीवित भाषाएँ थीं, कुछ
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