Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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उपाय प्रवर
श्री आनन्द उग्रन्थ श्री आनन्द
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धर्म और दर्शन
(६) समभिरूढ़नय - यह नय पर्यायवाची शब्दों में भिन्न अर्थ को द्योतित करता है— जैसे इन्द्र, शक्र और पुरन्दर शब्दों के पर्यायवाची होने पर भी इससे परम ऐश्वर्यवान् ( इन्दनात् इन्द्रः ), शक्र से सामर्थ्यवान् ( शकनात् शक्रः ) और पुरन्दर से नगरों के विदारण करने वाले (पूर्दारणात् पुरन्दरः) भिन्न- भिन्न अर्थों का ज्ञान होता है । भिन्न-भिन्न व्युत्पत्ति से पर्यायवाची शब्द भिन्नभिन्न अर्थों के द्योतक हैं। जिन शब्दों की व्युत्पत्ति भिन्न-भिन्न होती है वे भिन्न-भिन्न अर्थों के द्योतक होते हैं, जैसे-इन्द्र, पुरुष, पशु । पर्यायवाची शब्द भी भिन्न-भिन्न व्युत्पत्ति होने के कारण भिन्नभिन्न अर्थ को सूचित करते हैं । क्षणस्थायी वस्तु को भिन्न-भिन्न संज्ञाओं के भेद से भिन्न मानना समभिरूढ़नय है ।१७ पर्यायवाची शब्दों में निरुक्ति के भेद से भिन्न अर्थ को कहना समभिरूढ़नय है | पर्यायवाची शब्दों को सर्वथा भिन्न मानना समभिरूढ़नयाभास है । 25 जैसे करि, कुरंग, तुरंग शब्द परस्पर भिन्न हैं वैसे ही इन्द्र, शक्र, पुरन्दर आदि शब्दों को सर्वथा भिन्न मानना समभिरूढ़नयाभास है ।
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(७) एवंभूतनय - जिस समय व्युत्पत्ति के निमित्तरूप अर्थ का व्यवहार होता है, उसी समय अर्थ में शब्द का व्यवहार होता है अर्थात् जिस क्षण में किसी शब्द में व्युत्पत्ति का निमित्तकारण सम्पूर्ण रूप में विद्यमान हो, उसी समय उस शब्द का प्रयोग करना उचित है - यह एवंभूतनय की मान्यता है । वस्तु अमुक क्रिया करने के समय ही अमुक नाम से कही जा सकती है, वह सदा एक शब्द का वाच्य नहीं हो सकती, इसे एवंभूतनय कहते हैं ।१६ कहने का तात्पर्य यह है कि जिस समय पदार्थों में जो क्रियायें होती हैं, उस समय उस क्रिया के अनुरूप शब्दों से अर्थ के प्रतिपादन करने को एवंभूतनय कहते हैं, जैसे परम ऐश्वर्य का अनुभव करते समय इन्द्र, समर्थ होने के समय शक्र, नगरों का नाश करने के समय पुरन्दर होता है। पदार्थ में अमुक क्रिया होने के समय को छोड़कर दूसरे समय उस पदार्थ को उसी शब्द से नहीं कहना, एवंभूतनयाभास है । जैसे, जल लाने आदि की क्रिया का अभाव होने से पट को घट नहीं कहा जा सकता वैसे ही जल लाने आदि क्रिया के अतिरिक्त समय घट को घट नहीं कहना - एवंभूतनयाभास है । २०
संक्षेप में द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक भेद से नय के दो भेद हैं । द्रव्यार्थिकनय के नैगम, संग्रह, व्यवहार - ये तीन भेद हैं। ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवंभूत – ये चार पर्यायार्थिक नय के भेद हैं । इन नयों में पहले-पहले नय अधिक विषय वाले हैं और आगे आगे के नय परिमित विषयवाले है । संग्रहनय सत् मात्र को जानता है जबकि नैगमनय सामान्य और विशेष दोनों को जानता है, इसलिए संग्रहनय की अपेक्षा नैगमनय का अधिक विषय है । व्यवहारनय संग्रहनय से जाने हुए पदार्थों को विशेष रूप से जानता है जबकि संग्रह समस्त सामान्य पदार्थों को जानता है, इसलिए संग्रहनय का विषय व्यवहारनय की अपेक्षा अधिक है । व्यवहारनय तीनों कालों के पदार्थों को जानता है और ऋजुसूत्रनय से केवल वर्तमान पर्याय का ज्ञान होता है अतएव व्यवहारनय का
१७ वत्थूओ संकमणं, होइ अवत्थू नए समभिरूढे ।
१८ पर्यायध्वनिनामाभिधेयनानात्वमेव कक्षीकुर्वाणस्तदाभासः ।
अभिनंदन अन्य
१६ वंजण अत्थतदुभयं एवंभूओ विसेसेई ।
२० क्रियानाविष्टं वस्तु शब्दवाच्यतया प्रतिक्षिपस्तु तदाभासः ।
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- अनुयोगद्वार
--प्रमाणनय० ७।३८
- अनुयोगद्वार
- प्रमाणनय० ७/४२
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