Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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श्री आनन्द अन्थ श्री आनन्द
धर्म और दर्शन
(क) आहार पौषध - चौविहार उपवास अथवा नवकारसी, पोरसी आदि करना । (ख) शरीर पौषध - शरीर को पूर्णतः या आंशिक अलंकृत करने का त्याग करना । (ग) ब्रह्मचर्य पौषध - अब्रह्मचर्य का सर्वतः या देशतः त्याग करना ।
(घ) अभ्यापार पौषध - वाणिज्य आदि सावद्य व्यापार का त्याग करना ।
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इस व्रत में सांसारिक उपाधियों से छुटकारा लेकर साधु जैसी चर्या को धारण करने का अभ्यास किया जाता है । इस व्रत का आचरण प्रायः अष्टमी, चतुर्दशी आदि विशिष्ट तिथियों पर किया जाता है । यह पूर्णव्रत आठ प्रहर का होता है । लेकिन आजकल चतुष्प्रहरी पौषध भी होने लगे हैं, जो न करने से कुछ करने की उक्ति के समान माने जा सकते हैं, लेकिन वास्तव में पौषधव्रत तो नहीं हैं ।
इस व्रत में निम्नलिखित पांच दोषों से बचने का ध्यान रखना चाहिए
(१) पौषध के समय काम में लिए जाने वाले शैया - संथारे का प्रतिलेखन न करना अथवा अविधि से करना ।
(२) शैया - संथारे पर बैठते, सोते समय पूजणी आदि से पूँजना नहीं या अविधि से पूँजना । (३) मल-मूत्र आदि के विसर्जन के स्थान को विधिपूर्वक न देखना ।
(४) मल-मूत्र आदि के विसर्जन के स्थान को न पूँजना या अविधि से पूँजना ।
(५) आगमोक्त विधि से स्थिरचित्त होकर पौषधव्रत का पालन न करना । १२. अतिथिसंविभागव्रत
जिनके आने की कोई तिथि, समय निश्चित न हों, उन्हें अतिथि कहते हैं । संग्रहपरायण मनोवृत्ति को निष्क्रिय बनाने और त्याग भावना को जागृत विकसित करने के लिए इस व्रत का विधान है | अतिथि शब्द से मुख्यतः साधु, श्रमण, निर्ग्रन्थ का अर्थ ध्वनित होता है। श्रावक उनके प्रति उदार होकर दान, सेवा-भक्ति आदि तो करता ही है, लेकिन उनके सिवाय दीन-दुःखी, जरूरतमंद के लिए भी उसके द्वार खुले रहते हैं । इसलिए अतिथिसंविभाग का अर्थ यह हुआ कि अपने लिए बनी वस्तु का संविभाग - स्वयं के लिए संकोच करके अतिथि को देना ।
इस व्रत के निम्नलिखित पांच दोषों पर श्रावक को ध्यान रखना चाहिए
(१) सचित्तनिक्षेप - सुपात्र को नहीं देने की भावना से उनके लेने योग्य अचित्त वस्तु को सचित्त वस्तु पर रख देना ।
(२) सचित्तविधान -- नहीं देने की भावना से अचित्त वस्तु को सचित्त वस्तु से ढक देना । (३) कालातिक्रम - नहीं देने की भावना से काल का अतिक्रमण करना यानी भिक्षा के समय से पहले भोजन करना या बाद में रसोई आदि बनाना ।
(४) परव्यपदेश - नहीं देने की भावना से अपनी वस्तु को दूसरे की बता देना, कह देना । (५) मात्सर्य - दूसरे को दान देता देखकर ईर्ष्या करना, प्रतिस्पर्धावश अधिक दान देना । मांगने पर कुपित होना आदि ।
इन और इनके समकक्ष अन्य दोषों से बचकर श्रावक को अतिथिसंविभागव्रत का पालन करना चाहिए । बारह व्रतों का पालन करने से आध्यात्मिक उन्नति, सामाजिक शांति और स्व-पर को सुख की प्राप्ति होती है । प्रत्येक परिवार यदि इन व्रतों का पालन करने लगे तो संसार भी स्वर्ग बन जाये और विश्वबन्धुत्व स्थापित होने में विलम्ब न हो ।
व्रतधारी श्रावक को क्रमशः वैराग्य भाव में वृद्धि करते हुए मोह माया से दूर होने का प्रयत्न चालू रखना चाहिए और अपनी शक्ति को समझकर पूर्ण संयम- श्रमणाचार-ग्रहण कर लेना
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