Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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प्राकृत भाषा : उद्गम, विकास और भेद-प्रभेद ५
जो कुछ ज्ञातव्य-जानने योग्य है उसे वे जान चुके थे । वे वास्तविकता को पहचाने हुए थे । वे आदरास्पद ऋषि 'यद् वा नः तद् वा नः - ऐसा प्रयोग जहाँ किया जाना चाहिए, वहाँ 'यर्वाणःतर्वाणः ' ऐसा प्रयोग करते थे । परन्तु याज्ञिक-कर्म में अपभाषण- अशुद्ध शब्दों का उच्चारण नहीं करते थे । असुरों ने याज्ञिक कर्म में अपभाषण किया था अत उनका पराभव हुआ
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पतंजलि के कहने का आशय यह है कि वैदिक परम्परा के विद्वान् पण्डित भी कभी-कभी बोलचाल में लोक-भाषा के शब्दों का प्रयोग कर लेते थे। पतंजलि इसे तो क्षम्य मान लेते हैं परन्तु इस बात पर वे जोर देते हैं कि यज्ञ में अशुद्ध भाषा कदापि व्यवहृत नहीं होनी चाहिए । वैसा होने से अर्थ का अनर्थ हो जाता है। पतंजलि के कथन से यह अभिव्यंजित होता है कि इस बात की बड़ी चिन्ता व्याप्त हो गई थी कि लोक-भाषाओं का उत्तरोत्तर बढ़ता हुआ प्रवाह याज्ञिक कर्म-विधि तक कहीं न पहुँच जाये ।
आगे चलकर पतंजलि यहाँ तक कहते हैं
"याज्ञिकों के शब्द हैं कि यदि अहिताग्नि ( याज्ञिक) अग्न्याधान किये हुए व्यक्ति द्वारा अपशब्द का प्रयोग हो जाये तो उसे उसके प्रायश्चित स्वरूप सरस्वती इष्टि सारस्वत (सरस्वती देवताओं को उद्दिष्ट कर) यज्ञ करना चाहिए । २
एक स्थान पर पतंजलि लिखते हैं- जिन प्रतिपादिकों का विधिवाक्यों में ग्रहण नहीं किया गया है, उनका भी स्वर तथा वर्णानुर्षी के ज्ञान के लिए उपदेश संग्रह इष्ट है ताकि शश के स्थान पर पष, पलाश के स्थान पर पलाष और मञ्चक के स्थान पर मंजक का प्रयोग न होने लगे । ” पतंजलि के समक्ष एक प्रश्न और आता है। वह उन शब्दों के सम्बन्ध में है, जो पतंजलि के समय या उनसे पहले से ही संस्कृत में प्रयोग में नहीं आ रहे थे, यद्यपि वे थे संस्कृत के ही । ऊष, तेर, चक्र तथा पेच - इन चार शब्दों को पतंजलि ने उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया है। उन्होंने ऊष के स्थान पर उषिताः, तेर के स्थान पर तीर्णाः, चक्र के स्थान पर कृतवन्तः तथा पेच के स्थान पर पक्ववन्तः के रूप में जो प्रयोग प्रचलित थे, उनकी भी चर्चा की है । *
१. एवं हि श्रूयते यर्वाणस्तर्वाणो नाम ऋषयो बभूवुः प्रत्यक्षधर्माण: परावरज्ञा विदितवेदितव्या अधिगतयाथातथ्याः । ते तत्र भवन्तो यद्वानस्तद्वान इति प्रयोक्तव्ये यर्वाणस्तर्वाण इति प्रयुञ्जते, याज्ञे पुनः कर्मणि तापभाषन्ते । तैः पुनरसुरैयज्ञ कर्मण्यपभाषितम् ततस्ते पराभूता: । - महाभाष्य, प्रथम आन्हिक पृष्ठ ३७-३८ २. याज्ञिकाः पठन्ति आहिताग्निरपशब्द प्रयुज्य प्रायश्चित्तीयां सारस्वतीमिष्टि निर्वपेत् ।
-- महाभाष्य प्रथम आन्हिक पृ० १४ स्वरवर्णानुपूर्वी ज्ञानार्थ उपदेशः कर्तव्यः ।
३.
.........यानि तर्ह्य ग्रहणानि प्रातिपदिकानि एतेषामपि शशः षष इति मा भूत् । पलाश: पलाष इति मा भूत् । मञ्चको मञ्चक इति मा भूत् ।
- महाभाष्य प्रथम आन्हिक पृ० ४८
४. अप्रयोगः खल्वप्येषां शब्दानां नाट्यः । कुतः । प्रयोगान्यत्वात् यदेषां शब्दानामर्थेऽन्याच्छन्दान्प्रयुञ्जते । तद्यथा ऊषेत्यस्य शब्दस्यार्थे क्वयूयमुषिताः तेरेत्यस्यार्थे क्व यूयं तीर्णाः, चक्रेत्यस्यार्थे क्व यूयं कृतवन्त:, पेचेत्यस्यार्थे क्व यूयं पक्ववन्त इति ।
- महाभाष्य प्रथम, आन्हिक पृष्ठ ३१
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