Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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धर्म और दर्शन
(२) संग्रहनय-विशेषों की अपेक्षा न करके वस्तु को सामान्य रूप से जानने को संग्रहनय कहते हैं । अस्तित्व धर्म को न छोड़कर संपूर्ण पदार्थ अपने अपने स्वमाव में उपस्थित हैं। इसलिए संपूर्ण पदार्थों के सामान्य रूप से ज्ञान करने को 'संग्रहनय' कहते है। वेदांती और सांख्य दर्शन केवल संग्रहनय को मानते हैं। विशेष रहित सामान्य मात्र जानने वाले को संग्रहनय कहते हैं। पर और अपर सामान्य के भेद से संग्रह के दो भेद हैं। संपूर्ण विशेषों में उदासीन भाव रखकर शुद्ध सार मात्र को जानना पर-संग्रह है, जैसे सामान्य से एक विश्व ही सत् है। सत्ताद्वैत को मानकर संपूर्ण विशेषों का निषेध करना संग्रहाभास है । जैसे--सत्ता ही एक तत्त्व है। द्रव्यत्व, पर्यायत्वादि अवान्तर सामान्य को मानकर उनके भेदों में माध्यस्थ भाव रखना अपर संग्रह कहलाता है-जैसे द्रव्यत्व की अपेक्षा धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और जीव एक हैं। धर्मादि को केवल द्रव्यत्व रूप से स्वीकार करके उनके विशेषों के निषेध करने को अपर संग्रहाभास कहते हैं।
(३) व्यवहारनय-लोक-व्यवहार के अनुसार उपचरित अर्थ को बताने वाले विस्तृत अर्थ को 'व्यवहार' कहते हैं। जितनी वस्तु लोक में प्रसिद्ध हैं, अथवा लोक-व्यवहार में आती हैं, उन्हीं को मानना और अदृष्ट, अव्यवहार्य वस्तुओं की कल्पना न करने को व्यवहारनय कहते हैं। संग्रहनय से जाना हुआ अनाद्यनिधन रूप सामान्य व्यवहारनय का विषय नहीं हो सकता; क्योंकि इस सामान्य का सर्वसाधारण को अनुभव नहीं होता। इसी प्रकार क्षण-क्षण में बदलने वाले परमाणु रूप विशेष भी व्यवहार नय के विषय नहीं हो सकते, क्योंकि परमाणु आदि सूक्ष्म पदार्थ हमारे इन्द्रिय प्रत्यक्षादि प्रमाण के बाह्य होने से हमारी प्रवृत्ति के विषय नहीं हैं। अतएव व्यवहारनय की अपेक्षा कुछ समय तक रहने वाली स्थूल पर्याय को धारण करने वाली और जल धारण आदि क्रियाओं के करने में समर्थ घटादि वस्तु ही पारमार्थिक और प्रमाण से सिद्ध है ।१० क्योंकि इनके मानने में कोई लोकविरोध नहीं आता। इसलिए घट का ज्ञान करते समय घट की पूर्वोत्तरकाल की पर्यायों का विचार व्यर्थ है। निष्कर्ष यह हुआ कि संग्रहनय से जानी हुई सत्ता को प्रत्येक पदार्थ में भिन्नभिन्न रूप से मानकर व्यवहार करने को व्यवहारनय कहते हैं। चार्वाक लोग व्यवहारनयवादी हैं।
- कहने का तात्पर्य यह है कि संग्रहनय से जाने हुए पदार्थों में योग्य रीति से विभाग करने को व्यवहारनय कहते हैं, जैसे जो सत् है वह द्रव्य का पर्याय है। यद्यपि संग्रहनय की अपेक्षा द्रव्य और पर्याय सत् से अभिन्न हैं परन्तु व्यवहारनय की अपेक्षा द्रव्य और पर्याय को सत् से भिन्न माना गया है।१ द्रव्य और पर्याय के एकांत भेद प्रतिपादन करने को व्यवहाराभास कहते हैं-जैसे चार्वाकदर्शन । चार्वाक लोग द्रव्य के पर्यायादि को मानकर केवल भूतचतुष्टय को मानते हैं अतः
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६ (क) सामान्यप्रतिपादनपरः संग्रहनयः।
-जैनतर्कभाषा (ख) संगहियपिंडिअत्थं, संगहवयणं समासओविति ।।
-अनुयोगद्वार (ग) सामान्यमात्रग्राही संगहः ।
-जैनसिद्धान्तदीपिका प्रह १० (क) संग्रहेण गोचरीकृतानामर्थानां विधिपूर्वकमवहरणं येनाभिसंधिना क्रियते स व्यवहारः ।
-प्रमाणनय० ७/२३ (ख) संगृहीतार्थानां यथाविधिभेदको व्यवहारः ।।
-जैनसिद्धांतदीपिका प्र०६ ११ लौकिकसम उपचारप्रायो विस्तृतार्थो व्यवहार (नयः) ।
-तत्त्वार्थभाष्य १/३५
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