Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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नयवाद : सिद्धान्त और व्यवहार की तुला पर
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हैं । वस्तु के अनंत धर्मों में से वक्ता के अभिप्राय के अनुसार एक धर्म के कथन करने को नय कहते हैं । घट में कच्चापन, पक्कापन, मोटापन, चौड़ापन आदि अनंत धर्म होते हैं, अतः नाना नयों की अपेक्षा से शब्द और अर्थ की अपेक्षा प्रत्येक पदार्थ में अनंतधर्म विद्यमान हैं। नय का उद्देश्य है माध्यस्थ बढ़े । अतः लोकव्यवहार में भी नय का एक महत्त्वपूर्ण स्थान है ।
शाब्दिक, आर्थिक, वास्तविक, व्यावहारिक, द्रव्याथिक और पर्यायाथिक के अभिप्राय से आचार्यों ने नय के मूलतः सात भेद किये हैं-- यथा नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूप तथा एवंभूत । बौद्ध कहते हैं-रूप आदि अवस्था ही वस्तुद्रव्य है । वेदांत का कहना है कि द्रव्य ही वस्तु है, रूपादि गुण तात्त्विक नहीं हैं । भेद और अभेद के द्वन्द्व का एक निदर्शन है । नयवाद अभेद-भेद -- इन दो वस्तुधर्मों पर टिका हुआ है ।
(१) नैगमनय - यह नय सत्ता रूप सामान्य को द्रव्यत्व, गुणत्व, कर्मत्व रूप अवान्तर सामान्य को, असाधारण रूप विशेष को, तथा पर रूप से व्यावृत्त और सामान्य से भिन्न अवान्तर विशेषों को जानता है अर्थात् यह नय सामान्य विशेष को ग्रहण करता है ।" केवल नैगमनय का अनुकरण करने वाले न्याय-वैशेषिक परस्पर भिन्न और निरपेक्ष सामान्य और विशेष दोनों को स्वीकार करते हैं । नैगमनय के अनुसार अभिन्न ज्ञान का कारण सामान्यधर्म विशेषधर्म से भिन्न है । दो धर्म अथवा दो धर्मी अथवा एक धर्म और एक धर्मी में प्रधान और गौणता की विवक्षा को 'नैकगम' अथवा नैगमनय कहते हैं । ७ परन्तु दो धर्म, दो धर्मी अथवा एक धर्म और एक धर्मी में सर्वथा भिन्नता दिखाने को 'नैगमाभास' कहते हैं । 'निगम' शब्द का उपचार | इनमें होने वाले अभिप्राय को नैगम कहते हैं । अर्थात् इसमें सामान्य विशेष की भिन्नता का समर्थन किया जाता है ।
निलयन और प्रस्थ-ये नैगमनय के दो दृष्टांत प्रसिद्ध हैं । निलयन शब्द का अर्थ हैनिवासस्थान — जैसे—– किसी ने किसी से पूछा - ' आप कहाँ रहते हैं ?' उसने जवाब दिया कि मैं लोक में रहता हूँ । लोक में भी जंबूद्वीप - भरत क्षेत्र - मध्यखंड, अमुक देश — अमुक नगर - अमुक घर में रहता हूँ । नैगमनय इन सब विकल्पों को जानता है। दूसरा दृष्टांत प्रस्थ का है-धान्य को नापने के लिए पांच सेर के परिमाण को प्रस्थ कहते हैं। किसी ने किसी आदमी को कुठार लेकर जंगल में जाते हुए देखकर पूछा, 'आप कहाँ जाते हैं ?' उस आदमी ने जवाब दिया कि मैं प्रस्थ लेने के लिए जाता हूँ । ये दोनों नैगमनय के उदाहरण हैं । नैगमनय के अनुसार द्रव्य और पर्याय का समस्थिति में युगपत् ग्रहण नहीं होता 5
४ (क) नत्थि नएहिं विहूणं, सुत्तं अत्यो य जिणमए किंचि । आसज्जउ सोयारं, नए नयविसारओ
बूआ ||
- आव० नि० गा० ७६२
(ख) अनिराकृतेतरांशी वस्त्वंशग्राही ज्ञातुरभिप्रायो नयः । ५ सामान्यविशेषाद्यनेकधर्मोपनयनपरोऽध्यवसायो नैगमः ।
६ नैगमनयानुरोधिनः कणादा आक्षपादाश्च ।
७ णेगेहि माणेहिं भिणइति णेगमस्स य निरुत्ती ।
८ हरिभद्रीयावश्यक टिप्पणे नयाधिकारः ।
अर्थ है - देश, संकल्प और तादात्म्य की अपेक्षा से ही
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— जैनसिद्धांतदीपिका प्र० ६
- जैनतर्कभाषा
- स्याद्वादमंजरी, श्लोक १४, टीका
— अनुयोगद्वार सूत्र
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श्री आनन्द आनन्दः वामन दाष आमद
ग्रन्थ
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