Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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जैन आचारसंहिता
४१३
POEMS
२. मार्दव-मान को जीतना, विनम्र वृत्ति रखना मार्दव कहलाता है। अभिमान के आठ कारण होने से अभिमान के आठ भेद हैं-जाति, कुल, बल, रूप, तप, ज्ञान, लाभ और ऐश्वर्य (प्रभुत्व) । व्यक्ति जिस-जिस वस्तु का अभिमान करता है, उससे उस वस्तु की प्राप्ति में कमी हो जाती है। जैसे ज्ञान का घमण्ड करने से मूर्खता और रूप का अभिमान करने से कुरूपता मिलती है। इसीलिए अभिमान करना योग्य नहीं है। व्यक्ति जिन वस्तुओं पर अभिमान करता है, वे तो क्षणिक हैं किन्तु उन पर अभिमान करने से पाप कर्मों का वंध तो हो जाता है।
३. आर्जव-माया, छल कपट, वक्रता का त्याग करना । सरल वृत्ति रखना। आर्जव धर्म का पालन करने से मन, वचन, काय की कथनी करनी में समानता की प्राप्ति होती है।
४. शौच-लोभ को जीतना । पौद्गलिक वस्तुओं की आसक्ति का त्याग करना। इस धर्म का पालन करने से अपरिग्रहत्व की प्राप्ति होती है । शौच का दूसरा नाम मुक्ति भी है, संतोष है।
५. सत्य-सावद्य-अप्रिय एवं अहितकारी मन, वचन, काया की प्रवृत्तियों का सर्वथा त्याग करना, सत्य व्यवहार करना सत्य धर्म है। सत्यधर्म का पालन करने वाले को ही सभी प्रकार की ऋद्धि-सिद्धि की प्राप्ति होती है। इसीलिए साधु को प्राण देकर भी सत्य धर्म की सुरक्षा करना चाहिए।
६. संयम–सर्व सावध व्यापारों से निवृत्त होना संयम धर्म है। संयम के सत्रह भेद हैंपांच आस्रवों से निवृत्ति, पाँच इन्द्रियों का निग्रह, चार कषायों पर विजय, तथा मन, वचन, काय की अशुभ प्रवृति से विरति ।
७. तप-जिस अनुष्ठान द्वारा शारीरिक विकारों और ज्ञानावरणादि कर्मों को तपाकर नष्ट किया जाये। तप के बाह्य और आभ्यन्तर यह दो भेद हैं। वाह्य तप के अनशन, ऊनोदरी आदि छः भेद हैं तथा प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य आदि अन्तरंग तप के छह भेद होते हैं। कुल मिलाकर तप के बारह भेद हैं।
८. त्याग-कर्मों के ग्रहण कराने के बाह्य कारण-पारिवारिक जन तथा आभ्यन्तर कारण--राग-द्वेष आदि का त्याग करना त्याग धर्म है।
९. आकिंचन्य-इसका दूसरा नाम लाघव है । यानी द्रव्य से अल्प उपकरण रखना तथा भाव से तीन प्रकार के गारव-ऋद्धिगारव, रसगारव, सातागारव का परित्याग करना । मान एवं लोभ से मिश्रित अशुभ भावना का नाम गारव है।
१०. ब्रह्मचर्य-ब्रह्म अर्थात् आत्मा और चर्य अर्थात् चिन्तन । आत्मा के चिन्तन में तल्लीन रहने को ब्रह्मचर्य कहते हैं।
उपरि-उल्लखित महाव्रत आदि श्रमण आचार प्रवृत्ति करने से स्व में रमणता करने में वृद्धि होती जाती है। इसीलिए इन सबको साधु आचार का व्यावहारिक रूप कह सकते हैं। इन सबका यथावत् आचरण करने से स्व को स्व में देखना सरल होता जाता है और जब साधक अपनी साधना की चरम स्थिति पर पहुँच जाता है तब स्व-रमणता के क्षेत्र में प्रवृष्ट होकर आत्मोन्मुखी बन जाता है। उसकी यह स्थिति योगी जैसी कही जा सकती है।
योगावस्था सम्पन्न आत्मा अपने आप में समता भावना को इतना व्यापक बना लेता है कि बाह्य पदार्थों के प्रति आकर्षण तो पहले ही नष्ट हो जाता है लेकिन जो कुछ भी थोड़ा बहुत रागद्वेष का अंश शेष रह जाता है उसे भी साधना के द्वारा शांत करता है अथवा उसको निष्क्रिय बना देता है।
इस प्रकार संक्षेप में यह श्रमण-आचार है।
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