Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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नयवाद : सिद्धान्त और व्यवहार की तुला पर
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जाया
सम्पूर्ण जगत का नाश करते हैं। जिस प्रकार शत्रु खङ्ग के द्वारा समस्त संसार का नाश करते हैंसंहार करते हैं उसी प्रकार परवादियों ने दुर्नयवाद का प्ररूपण करके सत् ज्ञान का नाश कर दिया है। एक दूसरे का नाश करने वाले सुन्द और उपसुन्द नाम के दो राक्षस भाइयों के समान क्षुद्र शत्रु एकान्तवादी रूप कंटकों का परस्पर नाश हो जाने पर नयस्वरूप स्याद्वाद का प्ररूपण करने वाला आपका द्वादशांग प्रवचन किसी के द्वारा भी पराभूत नहीं किया जा सकता। अपेक्षा दृष्टियां उस विरोध को मिटाती हैं, जो तर्कवाद से उद्भूत होता है।
जो एक अंश को लेकर वस्तु के स्वरूप का वर्णन करता है वह वस्तुतः ज्ञाननय है।३० आचारांग में कहा है कि जिसको सम्यग ज्ञान अथवा सम्यग् रूप देखो-उसी को संयम रूप देखो और जिसको संयमरूप देखो-उसी को सम्यग् रूप देखो।3 ° सम्यक् जानकर ही ग्रहण करने वाले अर्थ में और अग्रहणीय अर्थ में भी होता है उसे इहलोक तथा परलोक से सम्बन्धित अर्थ के विषय में यत्न करना चाहिए । इस प्रकार जो सद्व्यवहार के ज्ञान के कारण का उपदेश है-वह प्रस्तावतः ज्ञाननय कहा जाता है। भगवान् ने साधुओं को लक्ष्य करके कहा है
णयंमि गिण्हिअव्वं अगिण्हिअव्वंमि अत्थंमि । जइ अव्वमेव इह जो, उवएसो सो नओ नाम । सम्वेसि पि नयाणं बहुविहवत्तव्वं निसामित्ता। तं सव्वनयविसुद्ध, जं चरणगुणढिओ साहू ॥
-अनुयोगद्वार-उत्तरार्ध अर्थात जो सभी नयों के नाना प्रकार की वक्तव्यताओं को सुनकर सब नयों में विशुद्ध है वही साधु चारित्र और ज्ञान के विषय में अवस्थित है।
इस प्रकार नयवाद सिद्धांत और व्यवहार की तुला पर टिका हुआ है।
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३० मिथ्यासमूहो मिथ्या चेन्न मिथ्थैकांतताऽस्ति नः । निरपेक्षा नया मिथ्या सापेक्षा वस्तुतेऽर्थकृत् ।
-आप्तमीमांसा, १०८ ३१ ज सम्म ति पासह तं मोणं ति पासह । जं मोणं ति पासह तं सम्म ति पासह ।
-आचारांग ५/३ MOREसभागार साधाना
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श्रीआनन्द
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