Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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औधाप्रबराजमाचार्यप्रवचन श्रीआनन्द श्रीआनन्द अत्यन
३८४ धर्म और दर्शन
कषाय या राग-द्वेष-मोह भाव से आत्मा का कर्म के साथ तादात्म्य होता है। जितना कषाय गाढ़ा होगा कर्म परमाणु उतनी ही प्रगाढ़ता से आत्मा के साथ एकीभूत होगा और उनका फल भी उतनी ही प्रबलता से मिलेगा। जिस प्रकार जो विकार शरीर के साथ अधिक तादात्म्य-एकरूपता को प्राप्त होता है वह उतना ही अधिक फल देता है। उसी प्रकार जिस प्रवृत्ति में कषाय जितना अधिक तीव्र होगा वह प्रकृति उतना ही अधिक फलदान करेगी। स्थितिबंध
आत्मा से बंधे कर्म जितने समय तक आत्मा के साथ रहते हैं उस समय की अवधि को स्थितिबंध कहते हैं। जिस प्रकार प्रत्येक शारीरिक विकार अलग-अलग समय तक अपना फल देता है। किसी को मलेरिया ज्वर दो दिन रहता है किसी को नौ दिन । कभी सिर दर्द कुछ समय तक रहता है कभी बहुत समय तक । इसी प्रकार कोई कर्मबंध बहुत समय तक फल देता है, कोई कम समय तक। कर्म का यह स्थितिबंध कषाय के परिमाण (Quantity) के अनुसार होता है।
मन, वचन, काया की प्रवृत्ति को योग कहते हैं। राग-द्वेष भाव को कषाय कहते हैं । योग के प्रकार-परिणाम (Quality) के अनुसार प्रकृतिबंध होता है। योग के परिमाण (Quantity) के अनुसार प्रदेशबंध होता है। कषाय के परिणाम (Quality) के अनुसार अनुभागबंध होता है और कषाय के परिमाण (Quantity) के अनुसार स्थितिबंध होता है।
कर्म बंध का मूलाधार परिणाम (भावना) है। जिस प्रकार जैसा बीज होता है वैसा ही फल है, इसी प्रकार जैसा परिणाम (भावना) होती है वैसा ही परिणाम (फल) आता है । भावना रूप परिणाम ही फल रूप परिणाम का कारण है। यादृशी भावना तादृशी सिद्धिर्भवति । प्राणी भाव से भाग्यवान बनता है और भाव से भगवान भी बन सकता है। कर्म के प्रकार
कर्म को हम अशुभ और शुभ इन दो रूपों में वर्गीकरण कर सकते हैं। अशुभ कर्म कुपथ्य के समान अहितकारी हैं और शुभ कर्म सुपथ्य या अनुपान के समान हितकारी हैं। जिस प्रकार कुपथ्य सेवन से शारीरिक रोग बढ़ता है और पथ्य सेवन से रोग घटता है एवं सामर्थ्य व स्वास्थ्य की वृद्धि होती है। इसी प्रकार अशुभ कर्मों से दुःखदायी स्थितियों की वृद्धि होती है और शुभ कर्मों से आत्मा के सामर्थ्य व स्वस्थता में वृद्धि होती है। अशुभ कर्मों को कर्म-विज्ञान में पापकर्म व शुभकर्मों को पुण्यकर्म कहा है। पापकर्म हैं-हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन, परिग्रह, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, कलह, अभ्याख्यान, चुगली, निंदा, रति, अरति, छल-प्रपंच, मिथ्यात्व आदि । पुण्यकर्म हैं-परोपकार, सेवा व मन, वचन, काया से दूसरों का हित करना है।
शुभ से अशुभ का ह्रास होता है। जितनी शुभ प्रवृत्तियों की वृद्धि होगी उतनी ही अशुभ प्रवृत्तियों में कमी होती जायेगी । जिस प्रकार पथ्य का सेवन कुपथ्य के दुष्प्रभाव को घटाता है । इसी प्रकार पुण्य प्रवृत्तियां पाप प्रवृत्तियों के दुष्परिणाम को घटाती हैं। जिस प्रकार जितना रोग धटता जाता है उतना ही शरीर का सामर्थ्य एवं स्वास्थ्य बढ़ता जाता है । इसी प्रकार जितना पाप प्रकृतियों का जोर घटता जाता है उतनी आत्मा की शक्ति बढ़ती है। आत्मा स्वस्थ होती जाती है। आत्मा का विकास होता जाता है और आत्मा का विकास इन्द्रियवृद्धि, प्राणवृद्धि, ज्ञानवृद्धि, बुद्धिवृद्धि, वैभववृद्धि के रूप में प्रकट होता है।
'पुनाति आत्मानं इति पुण्यः', जो आत्मा को पवित्र करे, वह पूण्य है। आत्मा मैली होती है कषाय के कलुष से। अतः जिससे कषाय में मंदता आवे वह पुण्य है। जिस प्रकार अशोधित विष शरीर में विकार उत्पन्न करता है, स्वास्थ्य का घात करता है, अहितकारी है। परन्तु वही शोधित कर दिया जाय और फिर लिया जाय तो स्वास्थ्यकारी हो जाता है। इसी प्रकार प्रवृत्ति जब,
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