Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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धर्म और दर्शन
इस अवस्था का प्राप्त होना निघत्तकरण कहलाता है। अतः ज्ञानीजनों का कर्तव्य है कि अपनी अशुभ प्रवृत्ति को बल देने वाली अन्य अधम प्रवृत्तियों से अपने को बचायें ।
निकाचना करण
वह क्रिया जिससे कर्म ऐसे हड़तम हो जायें कि फिर उसमें किसी भी प्रकार का कुछ भी परिवर्तन सम्भव ही न रहे, निकाचना करण कहलाता है। जिस प्रकार कोई साधारण सा साध्य अथवा कष्ट साध्य रोग अपनी वृद्धि के अनुकूल साधन पाकर असाध्य रोग का रूप धारण कर लेता है फिर उस पर दवा उपचार कारगर नहीं होता है, उसे भोगना ही पड़ता है-जैसे कैंसर रोग । इसी प्रकार कर्म भी कषाय की प्रबलता को पाकर दृढ़तम बन्ध को प्राप्त हो जाता है । उसका आत्मा से इतना प्रगाढ़ सम्बन्ध स्थापित हो जाता है कि उसे भोगना ही पड़ता है । अतः अन्य के इस निकालना स्वरूप को ध्यान में रखते हुए ज्ञानी जनों का कर्तव्य है कि अपनी पाप प्रकृतियों के रस में निमग्न न होवें । जलकमलवत् निर्लिप्त रहने का ध्यान रखें ।
उद्वर्तन करण
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जिस कारण से कर्म की स्थिति और रस बढ़ जाता है, उसे उद्वर्तना करण कहते हैं । जिस प्रकार खाँसी घृत तेल आदि से बढ़ जाती है और अधिक काल तक कष्ट देती है । इसी प्रकार किसी प्रवृत्ति में बार-बार रस लेने से उस प्रवृत्ति से सम्बन्धित प्रकृति में अधिक फलदान करने एवं अधिक समय तक टिकने की शक्ति आ जाती है । अतः हित इसी में है कि पाप प्रवृत्तियों की पुनरावृत्ति से बचा जाय, उनमें कम से कम रस लिया जाय ।
अपवर्तना करण
जिस कारण से कर्म की स्थिति और रस घट जाता है, उसे अपवर्तना करण कहते हैं । जिस प्रकार पित्त का रोग नींबू- आलूबुखारा खाने से घटता है। तीव्र क्रोध का वेग जल पीने से
घटता है । इसी प्रकार किए गए दुष्कर्मों के प्रति पश्चात्ताप व प्रायश्चित्त आदि करने से उनकी फलदान शक्ति घटती है । अतः रति या अविरति को त्यागने व विरति को अपनाने में आत्मा का हित है ।
संक्रमण करण
जिस कारण से पूर्व में बन्धे कर्म की प्रकृति अपनी सजातीय प्रकृति में रूपान्तरित हो जाती है, उसे संक्रमण करण कहते हैं । जिस प्रकार शरीर के विकारग्रस्त अंग हृदय, नेत्र आदि को हटाकर उनके स्थान पर स्वस्थ हृदय, नेत्र का आरोपण करने से रोगी होता है— बीमारी के कष्ट से बचना एवं स्वस्य अंग की शक्ति-सुख को पाना ।
को दुहारा लाभ
इसी प्रकार अशुभ
कर्म प्रकृति को अपनी सजातीय शुभ कर्म प्रकृति में बदला जा सकता है। आधुनिक मनोविज्ञान में इसे मार्गान्तरीकरण (Sublimation of Mentalenegy) कहा जाता है ।
कुत्सित प्रकृतियों को उदात्त प्रकृतियों में मार्गान्तरीकरण या रूपान्तरणकरण को वर्तमान मनोविज्ञान में उदात्तीकरण कहा गया है। इसका अपराधी या दोषी मनोवृत्तियों के व्यक्तियों को सुधारने में उपयोग किया जाता है। अपनी उपयोगिता के कारण मार्गान्तरीकरण - उदात्तीकरण मनोविज्ञान का प्रधान अंग बन गया है तथा इसके विभिन्न रूप प्रस्तुत किए गए हैं यथा-तोड़फोड़ करने वाले, अनुशासन हीन छात्रों को उनकी रुचि के रचनात्मक कार्य में लगाकर उनकी मनोवृत्ति बदली जाती है। तीव्र रोग या शरीर के प्रति कामवासना (कुत्सित भाव ) का उदात्ती करण गुणानुराग, भक्तिभाव, कला या काव्य रचना में किया जा सकता है ।
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