Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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आचार्य प्रव श्री आनन्द
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आयाम प्रवरुप अभिनंदन ग्रन्थ श्री आनन्द 323
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धर्म और दर्शन
होता है एवं संयम शारीरिक स्वास्थ्य प्राप्ति का कारण होता है । इसी प्रकार असंयम आत्मिक विकार (कर्म) उत्पत्ति का कारण होता है और संयम आत्मा के निर्विकारी व स्वस्थ बनाने में कारण होता है ।
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अप्रमाद - अपने कल्याण के प्रति सजग रहना अप्रमाद है । जिस प्रकार रोगी लापरवाही करने और अपने को रोगोत्पादक वातावरण व पदार्थों से न बचावे तो रोग की वृद्धि होती है और स्वास्थ्य प्रदायक पथ्य और उपचार का बराबर ध्यान रखे तो शरीर शीघ्र स्वस्थ बनता है । इसी प्रकार व्यक्ति पाप से बचने के प्रति एवं चारित्र को ऊँचा उठाने के प्रति जितना सजग रहता है, उतना ही जीवन का उत्थान होता है। उतना ही अधिक निर्विकार बनता है ।
अकषाय-राग-द्वेष की वृत्तियां कषाय कही जाती हैं। कयाय से ही कर्मों का स्थिति और अनुभाग बंध होता है। जिस प्रकार कलुष, कमैले पदार्थ शरीर में रोगोत्पत्ति के कारण होते हैं इसी प्रकार कषाय आत्मा के विकारोत्पत्ति का कारण है । कषाय से ही कर्म में फल देने की शक्ति आती है । अतः जितना कषाय कम होगा कर्म उतना ही निर्बल व अल्प समय टिकने वाला होगा ।
शुभयोग- मन, वचन व काया की शुभ प्रवृत्ति को शुभ योग कहते हैं जिस प्रकार शरीर की अहितकर प्रवृत्तियां गलत ढंग से बैठना, उठना, चलना, खाना, काम करना आदि शरीर में रोगोत्पत्ति की कारण होती हैं और स्वास्थ्यवर्द्धक ढंग से उठना बैठना, खाना पीना आदि से स्वास्थ्य की वृद्धि होती है। इसी प्रकार मन, वचन, काया की पापमय अशुभ प्रवृत्तियों से आत्मा के अकल्याणकारी कर्म - विकारों का बंध होता है । पुण्य व संयममय शुभ प्रवृत्तियों से आत्मा के विकार नष्ट होते हैं एवं आत्म-विकास में सहायक सामग्री मिलती है।
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चिकित्साशास्त्र में रोगोपचार में पध्य व अनुपान का जो स्थान है वही स्थान आध्यात्मिक उपचार में कर्म विज्ञान में शुभयोग व पुण्य का है। अनुपान या पथ्य उपचार का औषधि का सहायक अंग है उसी प्रकार पुण्य भी संवर-निर्जरा का सहायक अंग है । जिस प्रकार पूर्ण स्वस्थ होने पर औषधि का कार्य समाप्त हो जाता है फिर न औषधि की आवश्यकता रहती है और न अनुपान की इसी प्रकार आत्मा के पूर्ण स्वस्थ, निर्विकार, कर्म रहित हो जाने पर न संबर- निर्जरा की जरूरत रहती है न पुण्य या शुभ योग की ।
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निर्जरा-जिन कारणों से संचित कर्म क्षय हों उन्हें निर्जरा कहते हैं। जिस प्रकार शारीरिक विकार दो प्रकार से नष्ट होते हैं- एक प्रकार है रोग के रूप में प्रकट होकर स्वतः समाप्त होना और दूसरा प्रकार है औषधि से बिना अपना परिणाम दिखाये ही समाप्त होना । इसी प्रकार निर्जरा के भी दो प्रकार हैं- प्रथम प्रकार है कर्म स्वतः यथासमय अपना फल देकर नष्ट हो जाते हैं, इसे सविपाक निर्जरा कहते हैं। दूसरा प्रकार है प्रयत्न पूर्वक बिना फल दिये ही कर्मों को क्षय कर देना, इसे अविपाक निर्जरा कहते हैं । शारीरिक चिकित्सा शास्त्र में जो स्थान उपचार का है वही स्थान कर्म सिद्धान्त में अविपाक निर्जरा का है। जिस प्रकार शारीरिक चिकित्साशास्त्र में उपवास, औषध, सेवा-शुश्रूषा आदि उपचार के अनेक रूप हैं इसी प्रकार आध्यात्मिक चिकित्साशास्त्रकर्म-सिद्धान्त में, अविपाक निर्जरा में उपवास, प्रोषध, सेवा-शुश्रूषा ध्यान आदि आत्म-विकारक्षय के अनेक रूप हैं। चिकित्साशास्त्र के साथ इनकी क्या संगति है, यह स्वतन्त्र लेख का विषय है।
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मोक्ष - जैनधर्म का मुख्य उद्देश्य या लक्ष्य मुक्ति या मोल है। आत्मा का अपने सर्वविकारों को नष्ट कर स्व में स्थिति हो जाना अर्थात् स्वस्थ हो जाना ही मोक्ष है । यह विकारों से सर्वथा मुक्ति की स्थिति है, इसीलिए इसे मुक्ति कहा गया है। आत्मा का पूर्ण निर्विकार, स्वस्थ अवस्था ही
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