Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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धर्म और दर्शन
कर्म सिद्धान्त के सूत्र भाग्य के संविधान के सूत्र हैं। जिस प्रकार विधान संस्थानसंचालन व संरचना के नियमों का निदर्शक होता है उसी प्रकार कर्म सिद्धान्त भी जीवन संचालन व संरचना के नियमों के निदर्शक है। जिनका ज्ञान करके एवं तदनुकूल आचरण करके मानव मात्र अपनी इच्छानुसार सौभाग्यमय जीवन का निर्माण कर सकता है एवं ऐसे शाश्वत परमानंद के क्षेत्र में प्रवेश कर सकता है जहाँ जन्म, मरण, रोग, शोक, दु:ख, दारिद्रय, का अस्तित्व ही नहीं है। कर्म-बंध की प्रक्रिया
पहले कहा गया है कि चेतन में अपने विरोधी स्वभाव वाले अचेतन पदार्थ के संयोग से कर्म रूपी विकार उत्पन्न होता है। कर्मोत्पत्ति की प्रक्रिया में वही नियम काम करते हैं जो रोगोत्पत्ति की प्रक्रिया में काम करते हैं। जिस प्रकार शारीरिक रोग की उत्पत्ति के चार रूप होते हैं, (१) रोग का प्रकार या प्रकृति, (२) शरीर में प्रविष्ट रोगोत्पादक विष की मात्रा, (३) रोग कितने समय तक टिकने वाला है, रोग की कालावधि और (४) रोग किस रूप में प्रकट होकर फल देने वाला है। इसीप्रकार आत्मिक रोग-विकार कर्म की उत्पत्ति या कर्मबंध के भी चार रूप हैं :(१) प्रकृतिबंध, (२) प्रदेशबंध, (३) स्थितिबंध और (४) अनुभागबंध । कर्मबंध ने इन चारों रूपों को नीचे शारीरिक रोगों के चारों रूपों के आधार पर प्रस्तुत किया जाता हैप्रकृतिबंध
जिस प्रकार व्यक्ति द्वारा ग्रहण किया गया प्रत्येक पदार्थ अपनी प्रकृति के अनुसार शरीर में अलग-अलग प्रभाव के रूप में प्रकट होता है। इमली वात प्रकृति वाली है, दही व दूध घृत कफ प्रकृति वाले हैं। मच्छर काटने का विष मलेरिया पैदा करने की प्रकृति वाला है, बावले कुत्ते का विष पागलपन पैदा करने की प्रकृति वाला है, अफीम, धतूरा, संखिया आदि विष अपनी अलगअलग प्रकृति वाले हैं। इसीप्रकार मन, वचन, काया की प्रत्येक प्रवृत्ति अलग-अलग कर्म प्रकृति पैदा करने वाली है । ज्ञान में बाधा डालनेवाली, ज्ञानी व ज्ञान का अनादर करने वाली प्रवृत्ति ज्ञान में बाधा डालने वाली प्रकृति का रूप धारण करती है। इसकी प्रकार कोई प्रवृत्ति दर्शन में, कोई प्रवृत्ति आनंद में, कोई प्रवृत्ति सामर्थ्य के प्रकटीकरण में बाधा डालती है। जैसे व्यक्ति द्वारा ग्रहण किये गए दूध, घृत, रोटी आदि कुछ पदार्थ शरीर का निर्माण वृद्धि, पुष्टि करने वाले होते हैं इसी प्रकार मन, वचन काया की कुछ प्रवृत्तियां शरीर, आयु, संवेदन शक्ति आदि के निर्माण करने वाली होती हैं। मन, वचन, काया के स्पंदन-प्रवृत्ति, क्रिया से उसी स्थान में स्थित कार्मण वर्गणाएँ आकृष्ट होकर आत्मा के साथ एकीभूत हो जाती है वे वैसा ही रूप ग्रहण कर लेती है जैसी प्रवृत्ति होती है। कर्म सिद्धान्त के नियमानुसार प्राणी की प्रवृत्ति ही प्रकृति का रूप धारण करती है । सूत्र है-जैसी प्रवृत्ति वैसी प्रकृति । प्रवृत्तियां अगणित हैं अतः कर्म प्रकृतियां भी अगणित हैं परन्तु कर्म ग्रंथों में उन सबका वर्गीकरण आठ मूल प्रकृतियों में, एक सौ अठावन उत्तर प्रकृतियों के रूप में कर दिया गया है। प्रकृति स्वभाव का पर्यायवाची है। कर्म की आठ मूल प्रवृत्तियाँ हैं यथा(१) ज्ञानावरणीय, (२) दर्शनावरणीय, (३) वेदनीय, (४) मोहनीय, (५) आयु, (६) नाम, (७) गोत्र और (८) अंतराय। जिस प्रकार अलग-अलग प्रकार के विष या पदार्थ शरीर में अलगअलग प्रकार के विकार उत्पन्न करते हैं इसी प्रकार प्राणी की प्रवृत्तियां या भाव भी आत्मा में अलगअलग प्रकार की कर्म प्रकृतियां उत्पन्न करते हैं। जैसे कोई विष मस्तिष्क में विकार उत्पन्न कर विक्षिप्त बनाता है, विचार शक्ति को कुंठित करता है इसी प्रकार जो प्रवृत्ति या भाव आत्मा के ज्ञान को विकृत करती व कुंठित करती है उसे ज्ञानावरणीय कर्म प्रकृति कहा है। कोई विष आँख की देखने
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