Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
View full book text
________________
धर्म का वैज्ञानिक विवेचन
३७७
---
जबकि चेतना के क्रमिक विकास के साथ ही यह दैवी-प्रयोजन या शक्ति निहित है। दूसरे शब्दों में, चेतना ही दैवी शक्ति है जो अजैव से लेकर जैव-जगत तक एक क्रमिक गतिशीलता का परिचय देती है। अतः यह कहना अधिक उपयुक्त होगा कि विकास का प्रयोजन चेतना का क्रमिक विकास है जो दैवी-प्रयोजन का पर्याय है। यदि किसी को दैवी-प्रयोजन से आपत्ति है, तो मुझे विश्वास है कि 'चेतना' से उन्हें आपत्ति न होगी क्योंकि चेतना का विकास ही सृष्टि का आधार है। 'चेतना' के इसी स्वरूप का विश्लेषण मनोविज्ञान तथा दर्शन दोनों का विषय है और धर्म भी एक विशिष्ट मानवीय प्रक्रिया है जो 'चेतना' के स्वरूप तथा अर्थ-क्षेत्र को एक विशिष्ट संदर्भ देती है । भारतीय तथा पाश्चात्य मनोविज्ञान में एक विशिष्ट अंतर है। पाश्चात्य मनोविज्ञान केवल 'मन' की क्रियाओं तक ही सीमित है जबकि भारतीय मनोविज्ञान मन की क्रियाओं के अतिरिक्त मन से भी सूक्ष्म धरातलों का 'विज्ञान' है। दूसरे शब्दों में भारतीय मनोविज्ञान केवल मन तक ही सीमित नहीं है, पर वह मन से भी सूक्ष्म प्रत्ययों का आविष्कार कर सका है।' मन से भी परे मानवीय चेतना की विकास-शक्तियों को दिखाना भारतीय मनोविज्ञान का केद्रबिन्दु है। यहाँ पर मन से सूक्ष्म प्राण है और प्राण से आत्मा सूक्ष्म है। इस प्रकार 'मन' या मानसिकता एक धरातलीय स्वरूप है पर इससे सूक्ष्म तथा गहन एक गुप्त एवं अव्यक्त 'शक्ति' है जो चेतना-शक्ति (दि फोर्स आफ कान्शेसनेस) के नाम से अभिमित है जो प्रकृति और विश्व की क्रियात्मक शक्ति है। महर्षि अरिविंद ने चेतना-शक्ति को इसी क्रियात्मक शक्ति के रूप में स्वीकारा है और जहाँ तक मैं समझ सका हूँ यह चेतना-शक्ति मानवीय और मानवेतर 'विश्व' में विभिन्न स्तरों के रूप में प्रकट होती है। धर्म और दर्शन इन्हीं स्तरों को उद्घाटित करता है और आधुनिक मनोविज्ञान और विकासवादी मिद्धांत भी मन के गहन-स्तरों के साक्षात्कार में गतिशील रहे हैं। आधुनिक मनोविज्ञान की दो धाराएँ इस ओर गतिशील है--एक है अहं (Ego) की धारणा और दूसरी है पराअहं (Super Ego) की भावना जो कमश: मन से सूक्ष्म प्रत्ययों का स्वरूप है।
उपर्युक्त विश्लेषण के प्रकाश में यह तथ्य स्पष्ट हो जाता है कि आधुनिक वैज्ञानिक प्रगति और उससे उद्भूत चिंतन की दिशाएं 'धर्म' की अनेक प्रस्थापनाओं की पुष्टि भी करती है और दूसरी ओर, धार्मिक भावना और धर्मशास्त्र के सृष्टिविषयक सिद्धांतों को समझने के लिए एक व्यापक परिदृष्टि प्रस्तुत करती है। मानवीय 'ज्ञान' की परिसीमाएँ सापेक्षिक हैं, वे किसी भी दशा में निरपेक्ष नहीं हैं और धर्म को 'ज्ञान' का एक क्षेत्र मानकर ही उसके सही स्वरूप को जाना जा सकता है। किसी भी ज्ञान क्षेत्र को अंधविश्वास अथवा हठधर्मिता से नहीं समझा जा सकता है और विज्ञान और धर्म के सही सम्बन्ध को समझने के लिए उस हठधर्मिता को त्यागना अपेक्षित है।
२५
KNON
१ हिंद साइकोलोजी, स्वामी अखिलानन्द, १० १५ २ साइंस एण्ड कल्चर, श्री अरिविंद, पृ० ४२
AAJARMANADRAMANABAJAIAAKJANAJADAJANOARNManaia
n
R ILHAJANAPRIMARIRAMMALADAKIRIA.ABAJA
आचार्यप्रव श्रीआनन्द
भिआचार्यप्रवर अभि
श्रीआनन्दा अन्य
26
wr
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org