Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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कन्हैयालाल लोढ़ा, एम. ए. [जैनधर्म व दर्शन के विशिष्टअध्येता]
चिकित्सा-शास्त्र और मनोविज्ञान के परिप्रेक्ष्य में 'कर्म-सिद्धान्त : भाग्य-निर्माण की कला'
जगत के मौलिक पदार्थ
जब हम जगत पर नजर डालते हैं तो दो प्रकार की वस्तुएं या पदार्थ दिखाई देते हैं। एक प्रकार के पदार्थ तो वे हैं जिनमें इच्छाएं हैं, भावनाएं हैं, विचार हैं, ज्ञान है, संज्ञाएं हैं। जिन्हें सुख-दुःख का संवेदन होता है। जो श्वास लेते हैं, भोजन करते हैं व उसे पचाते हैं। जिनका शरीर बढ़ता है, मरता है। दूसरे प्रकार के पदार्थ वे हैं जिनमें प्रथम प्रकार के पदार्थों में बतलायी हुई कोई भी क्रिया नहीं होती है। विज्ञान की भाषा में प्रथम प्रकार के पदार्थों को जीवधारी एवं दूसरे प्रकार के पदार्थों को भौतिक कहा जाता है। जैन दर्शन में भी जगत में इन दो ही प्रकार के पदार्थों का अस्तित्व स्वीकार किया गया है। जैन दर्शन में प्रथम प्रकार के पदार्थों को जीव, आत्मा या चेतन कहा है तथा दूसरे प्रकार के पदार्थों को अजीव कहा है। अजीव या भौतिक पदार्थों की क्रिया प्रकृति के आधीन होती है। उसकी किसी भी क्रिया में उसका अपना कोई प्रयत्न या पुरुषार्थ नहीं होता है । जीव की क्रिया में जीव स्वयं का भावात्मक या क्रियात्मक पुरुषार्थ भी करता है। विकार की प्रक्रिया
प्रत्येक वस्तु या पदार्थ का निजी या मौलिक स्वभाव होता है। उस पदार्थ के स्वभाव से मेल खानेवाली अर्थात् समान स्वभाववाली वस्तु या पदार्थ सजातीय कहलाता है। उस पदार्थ के स्वभाव से भिन्न-विपरीत या विषम-स्वभाववाला पदार्थ विजातीय कहलाता है। यह भौतिक शास्त्र एवं चिकित्सा-शास्त्र का नियम है कि जब किसी पदार्थ का विजातीय पदार्थ से संयोग होता है तो उनका एक दूसरे पर प्रभाव पड़ता है जिससे उनमें विकार उत्पन्न हो जाता है। शुद्ध जल का शुद्ध जल से संयोग होता है तो उसमें कोई विकार उत्पन्न नहीं होता है, संमिश्रित जल भी शुद्ध ही रहता है। परन्तु शुद्ध जल में मिट्टी या रंग मिलता है तो विकृत हो जाता है, स्वर्ण से जब चांदी या तांबा का संयोग होता है तो वह विकृत हो जाता है।
हमारे शरीर की प्रकृति या स्वभाव से जिन पदार्थों की प्रकृति मेल नहीं खाती है वे शरीर के लिए विजातीय पदार्थ हैं। जब ऐसे विजातीय पदार्थों का शरीर में प्रवेश हो जाता है तो शरीर में उनका विपरीत प्रभाव पड़ता है जिससे शरीर में विकार उत्पन्न हो जाता है। शरीर उस विकार को बाहर निकालने की क्रिया करता है उसे ही रोग कहा जाता है। रोग का वास्तविक रूप हैशरीर में विजातीय द्रव्य से जो क्रिया (Action) होती है, उसके प्रति शरीर के द्वारा की गई प्रतिक्रिया (Reaction)। उदाहरण के लिए शरीर की प्रकृति से विष की प्रकृति विपरीत होती है
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