Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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KANIAMPAVANIMriniwan.wimwari
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धर्म और दर्शन
आगे वे इसी अद्वैतावस्था का वर्णन करते हुए कहते हैं कि जैसे नमक पानी में विलीन हो जाता है, उसी प्रकार चित्त निरंजन से मिल जाता है और जीव समरसता की स्थिति में पहुँच जाता है, तो किसी अन्य समाधि की आवश्यकता नहीं रह जाती। वे कहते हैं
जिम लोणु विलिज्जइ पाणियहँ तिम जइ चित्त विलिज्ज । समरसि हवइ जीवडा काइँ समाहि करिज्ज ॥१७६॥
-पाहुडदोहा, पृ० ५४ आनन्दतिलक के अनुसार भी समरसता की स्थिति में ही साधक अपनी आत्मा का दर्शन करता है।
समरस भावें रंगिया अप्पा देखइ सोई॥४०॥ -आणंदा कबीरदास ने भी जैन कवियों के समान ही आत्मा-परमात्मा के इस मिलन को समरसता कहा है। इन्होंने इस सामरस्य-भाव के लिये उक्त कवियों के भावों को ही अपनी भाषा में व्यक्त किया है। वे कहते हैं
मेरा मन सुमर राम कू, मेरा मन रामहिं आहि । अब मन रामहि ह वै रहा, सीस नवावौं काहि ॥१८॥
-कबीर ग्रन्थावली, पृ० ११० आगे वे नमक, पानी का ही दृष्टान्त प्रस्तुत करते हैं । जिसमें मुनि रामसिंह के पद्य का पूर्ण भाव समाहित है
मन लागा उन मन सौं, उन मन मनहिं विलग। लूण बिलगा पाणियां, पाणि लूण विलग ॥१६॥
-कबीर ग्रन्थावली, पृ० १३६ __ मुनि योगीन्दु ने योगसार में आत्मा-परमात्मा के मिलन की स्थिति को स्पष्ट करते हुए कहा है कि जीव परमतत्व से ऐक्य की स्थिति में उस तत्व को अपने अन्दर ही प्राप्त कर लेता है । ऐसी दशा में उसे विश्व के सभी प्राणियों में उस परमतत्व की सत्ता आभासित होने लगती है, तब दोनों में कोई भेद ही नहीं रह जाता। जो ज्ञानस्वरूप परमात्मा है, वही मैं हूँ और जो मैं हूँ, वही परमात्मा है। इसमें किसी प्रकार का विकल्प नहीं करना चाहिये । यथा
जो परमप्पा सो जि हऊँ, जो हउँ सो परमप्पु । इउ जाणे बिणु जोइया, अण्णु म करहु वियप्पु ।।२।।
-योगसार, पृ० ३७५ कबीर ने भी मुनि योगीन्दु के अनुकरण पर ही उसी 'अहं' रूप 'त्वं' की स्थिति को अपने शब्दों में इस प्रकार व्यक्त किया है
तू तू करता तू भया, मुझ में रही न हूँ। बारी फेरी बलि गई, जित देखों तित तू ॥६
--कबीर ग्रन्थावली, पृ० ११०
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चित्तशुद्धि .
शाश्वत सुख-प्राप्ति हेतु बाह्य-शुद्धि की अपेक्षा अन्तशुद्धि अत्यावश्यक है। आत्मा यदि कलुषित है, वह राग, द्वेष, ईर्ष्या आदि से युक्त है, तो बाह्याचार मात्र पाखण्ड एवं दिखावा है । अतः योगीन्दु, रामसिंह और आनन्दतिलक ने चित्तशुद्धि पर ही अधिक बल दिया है। उनका कथन
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