Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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निरञ्जन
ग्रन्थ
धर्म और दर्शन
श्री आनन्दत्र अन्
कहै कबीर सब जग विनस्या राम रहे अविनाशी रे ।। २६५ ।।
निरञ्जन शब्द के विषय में विभिन्न प्रकार की विचारधाराएँ उपलब्ध होती हैं । कुछ विचारक उसे कालपुरुष, शैतान, दोषी, पाखण्डी आदि निन्दात्मक अर्थों में लेते हैं तो कुछ लोग परमब्रह्म, परमपद, बुद्ध, प्रभृति प्रशंसात्मक अर्थों में । जैन साहित्य में इस शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग कुन्दकुदाचार्य ने किया है। उनके अनुसार 'निरञ्जन' शब्द उपयोग अर्थात् चेतन या आत्मा का ही नामान्तर है । यथा—
ए एसु य उवओगो तिविहो सुद्धो णिरंजणो भावो ॥६०॥
— कबीर ग्रन्थावली, पृ० ४६३
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अर्थात् उपयोग आत्मा का शुद्ध निरञ्जन भाव है | आचार्य कुन्दकुन्द की निरञ्जन की यह परिभाषा भले ही अपने समय में एकार्थक के रूप में रही हो, किन्तु आगे चलकर इसकी परिभाषा पर्याप्त विकसित हुई । यही विचार धारा विकसित रूप में जोइन्दु में प्रस्फुटित हुई और मुनि रामसिंह से विकसित होती हुई कबीर में मुखरित हुई दिखाई देती है । आचार्य जोइन्दु ने अपने 'परमप्पयासु' में 'निरञ्जन' शब्द का प्रयोग 'रागादिक उपाधि एवं कर्ममलरूपी अञ्जन से रहित' के अर्थ में किया है । यथा -
णिच्चु णिरंजणु णाणमउ परमाणंद-सहाउ । जो एहउ सो संतु सिउ तासु मुणिज्जहि भाउ ॥१७॥
- समयसार, पृ० ११५
- परमात्मप्रकाश, पृ० २६
अर्थात् जो अविनाशी, अंजन से रहित, केवलज्ञान से परिपूर्ण और शुद्धात्मभावना से उत्पन्न हुए वीतराग परमानंद से युक्त हैं, वे ही शान्तरूप और शिवस्वरूप हैं, उसी परमात्मा का ध्यान करना चाहिए ।
आगे चलकर उन्होंने चिदानंद शुद्धस्वभाव परमात्मा को भी 'निरञ्जन' विशेषण से विभूषित किया है। 'णिरंजण' का जो तत्व-निरूपण जैन कवियों ने किया, आगे चलकर वह पौराणिक रूप पा गया । निरञ्जन की अन्तिम परिणति देवतारूप में हुई, यद्यपि वह परमात्मतत्व विश्व में व्यापक है और विश्व उसमें व्यापक है । तथापि वह मनुष्य के शरीर मन्दिर में भी ज्ञानस्फुरण के रूप में अनुभूत होता है—
जसु अब्भंतरि जगु वसई जग - अभंतरि जो जि । जग जि वसंतु वि जगु जि ण वि मुणि परमप्पड सो जि ॥४१॥
-- परमात्मप्रकाश, पृ० ४५
मुनि रामसिंह ने भी 'निरञ्जन' शब्द को परमतत्व के रूप में ही लिया है। दर्शन और ज्ञानमय निरञ्जन देव परम आत्मा ही है। जब तक निर्मल होकर परम निरञ्जन को नहीं जान लिया जाता, तभी तक कर्मबन्ध होता है । इसलिए उसी को जानने का प्रयत्न करना चाहिए
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कम्म पुराइउ जो खवर अहिणव ये सु ण वेइ । परम णिरंजणु जो नवइ सो परमप्पड होई ॥७७॥ पाउवि अप्यहिं परिणवs कम्महूँ ताम करेइ । परमणिरंजणु जाम ण वि णिम्मलु होइ मुणेइ ॥७८॥
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