Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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आचार्यप्रवभिनय ग्रन्थश्राआनन्दान्थर
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धर्म और दर्शन
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यही परमाणु विज्ञान युग का ऊर्जा रूप है। इसी की शक्ति के आधार पर उत्थान और पतन हो सकता है।
आताप (heat), उद्योत (light), विद्युत (Electricity), ये तीन शक्तियां अति सूक्ष्म हैं। इन्हीं शक्तियों का प्रतिपादन जर्मनी के प्रो० अलवर्ट आइन्सटाइन ने सबसे पहले सूत्र में प्रस्तुत किया। इसी को ऊर्जा व पदार्थ की समानता के सिद्धान्त नाम से जाना जाने लगा। (Principal of Equivalance between mass and energy) i
सूत्र का प्रतिपादन इस प्रकार है
E=m--2/c'E' का अर्थ एनर्जी और (m) का अर्थ 'मास' है और (c) प्रकाश की गति का द्योतक है। अतः जब पदार्थ अपने स्थूल रूप को नष्ट करके शक्ति के सूक्ष्मरूप में परिणत हो जाता है, तब हजारों टन कोयला जलाने से जो शक्ति उत्पन्न होती है वही शक्ति एक ग्राम पदार्थ में भी प्राप्त हो सकती है । इसी महान शक्तिशाली परमाणु की रचना विज्ञान के दृष्टिकोण से इस प्रकार है
गोम्मटसार में परमाणु को षटकोणी, खोखला और सदा दौड़ता हुआ बतलाया गया है। तत्त्वार्थसूत्र में 'स्निग्ध' और रूक्षत्व गुणों के कारण को बंध कहा है। सर्वार्थसिद्धि में 'स्निग्धरूक्षगुणनिभित्तो विद्युत' ऐसा कहा है। अर्थात् स्निग्ध और रूक्ष के कारण ही विद्युत की उत्पत्ति होती है। स्निग्ध रूक्ष के चिकना या खुरदरा अर्थ न लेकर विज्ञान की भाषा के अनुसार Positive and Negative का प्रयोग आचार्य पूज्यपाद को मान्य था। हायड्रोजन के परमाणु के मध्य में धन (स्निग्ध) विद्युत कण (Proton) अल्पस्थान में स्थिर रहता है। यही उसी परमाणु का नाभि के रूप में है। (Nucleus नाभि) के चारों ओर कुछ दूरी पर रूक्ष अर्थात् ऋण-विद्युत कण (Electron) सतत् नाभि की ओर चक्कर लगाता रहता है । अतः स्निग्ध (Proton) और रूक्ष (Electron) के बीच जो खोखलापन है, उसी के कारण एक परमाणु के अन्दर दूसरा परमाणु प्रवेश कर सकता है। इसी क्रिया को सर्वार्थसिद्धिकारने सूक्ष्म-अवगाहन शक्ति नाम दिया। प्रदेश की व्याख्या पहले हम कर आये । एक प्रदेश में अनन्तानन्त परमाणु को स्थित करने की अवगाहन शक्ति है।
अतः इससे विज्ञान की मान्यता को जैनदर्शनानुसार किस ढंग से कहा है, पता लगता है। वैज्ञानिक दृष्टि से जैनदर्शन का अध्ययन होना चाहिए। न कि साम्प्रदायिक और धार्मिक दृष्टिकोण से। इसी की जंजीर में जैनदर्शन या पदार्थ-दर्शन का स्वरूप अंधकार में रहा और अनेक गलतफहमियां फैलती रहीं। सर्वार्थसिद्धि का पांचवां अध्याय पुद्गल परमाणु का यथार्थ स्वरूप प्रतिपादित करता है, जैसा कि विज्ञान में प्रतिपादित हुआ है।
स्कन्ध : बन्ध की प्रक्रिया--पुद्गल परमाणु के समूह से स्कन्ध बनता है और बंधने की प्रक्रिया का वर्णन जैन दर्शन में वैज्ञानिक ढंग से हुआ है। विज्ञान किसी धर्मग्रन्थ-आगम तथा दर्शन से जुड़ा हुआ नहीं है । विज्ञान के सिद्धान्त कोई भी अन्तिम नहीं हैं। वे समय-समय पर बदलते रहते हैं, वह एक सत्य की खोज करने वाला जिज्ञासु है। इसी के कारण अपनी कमजोरी को वह स्वीकार करने में हिचकता नहीं। बाइबिल, आगम, कुरान आदि आर्षग्रन्थ में प्रतिपादित तत्वों को विज्ञान ने कभी भी आंख मूंद कर स्वीकार नहीं किया, बल्कि उसे सत्य की कसौटी पर कसने की कोशिश की और सत्य को सामने उपस्थित किया। छः हजार पुरानी पृथ्वी का बाइबिल द्वारा जो कथन हुआ था उसे विज्ञान ने ५० हजार वर्ष पुरानी सिद्ध कर दी।
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