Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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धर्म का वैज्ञानिक विवेचन
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नियन्त्रित और दिशा संकेत करती है। यह प्रतिबद्धता ही मानवीय उत्तरदायित्व की एक सबल भूमिका है, यदि वह हमें उचित गंतव्यों की ओर ले जाती है। इस दृष्टि से आस्था और प्रतिबद्धता अन्योन्याश्रित हैं। यह आस्था एक अन्तर्दृ ष्टि का विषय है जो हमें आत्मज्ञान के निकट ले जाती है। विज्ञान एक विश्लेषणात्मक ज्ञान है और विश्लेषण-पद्धति में हम 'घटकों' का सूक्ष्म साक्षात्कार करते हैं जो "पूर्ण" के ही अंग हैं। आत्मज्ञान का स्वरूप भी उसी समय स्पष्ट होता है जब हम अंशों, घटकों और स्तरों का क्रमिक अवगाहन करते हैं। इसीसे गीता ने आत्मज्ञान का विस्तार समस्त विश्व में माना है अथवा यह 'ज्ञान' ही समस्त विश्व को अपने अन्दर ही समेटे हुए है और समस्त विश्व उसी ज्ञान से प्रकाशित हो रहा है।
___सर्गाणामादिरन्तश्च मध्यं चैवाहमर्जुन !
आध्यात्मविद्या विद्यानां वादः प्रवदतामहम् ॥ अर्थात् 'हे अर्जन, 'मैं' ही समस्त सृष्टि का आदि, मध्य और अन्त हूँ, समस्त विद्याओं में मैं आत्म या आध्यात्मिक विद्या हूँ; शब्दों के द्वारा जो सिद्धान्त बनाए जाते हैं, मैं ही वह सिद्धान्त हूँ जो सत्य का प्रतिपादन करते हैं।' यही सत्य की खोज धर्म का ध्येय है (और ज्ञानों का भी यही लक्ष्य है) और यहाँ पर हम 'धर्म' के सही रूप को प्राप्त करते हैं जो ज्ञानपरक है। ज्ञान का यह विस्तृत स्वरूप निरपेक्ष न होकर सापेक्ष है, वह सत्य में, विभिन्न आयामों को अपने अन्दर समाविष्ट करता है । 'धर्म' का ज्ञान भी निरपेक्ष नहीं है, उसकी मान्यताएं भी नवीन ज्ञान के परिप्रेक्ष्य में परीक्षित होती है। आज के नित नए विकसित होते हुए ज्ञान-क्षेत्रों के संदर्भ में हम 'धर्म' को केवल उसकी परम्परागत-धारणा की प्राचीरों से आबद्ध नहीं कर सकते हैं।
उपासना का स्वरूप संसार के सभी धर्मों में उपासना का कोई न कोई रूप अवश्य प्राप्त होता है; और यह उपासना 'धर्म' की धारणा का एक आवश्यक अंग है। यहाँ पर इस तथ्य की ओर ध्यान आकर्षित करना आवश्यक है कि जिस प्रकार सौंदर्य, कला की बपौती नहीं है, उसी प्रकार 'उपासना' का सम्बन्ध केवल धर्म से नहीं जोड़ा जा सकता है, क्योंकि 'उपासना' तो सभी ज्ञान-क्षेत्रों का एक आवश्यक तत्त्व है। उपासना एक ऐसी 'मनोदशा' है जो आंतरिक 'प्रकाश' को प्रकट करती है, जिसमें व्यक्ति अपनी 'अस्मिता को पहचानता है। उपासना एक ऐसी तल्लीनता है जो 'ज्ञान' के रहस्यों का उद्घाटन कर, 'अस्मिता' का साक्षात्कार कराती है। यही कारण है कि हिन्दू धर्म में इस 'अस्मिता' के प्रति सबसे अधिक बल दिया गया है और 'आत्मज्ञान' के साक्षात्कार को 'अस्मिता' का ही साक्षात्कार कहा गया है। धर्म का चाहे और कोई महत्त्व हो या न हो, पर 'अस्मिता' के साक्षात्कार का वह एक सबल माध्यम है। धर्म का इतिहास मानव-मन के इसी अभियान का इतिहास है। धर्म के प्रतीक और धारणायें इसी आत्मसाक्षात्कार के माध्यम हैं और जहाँ तक 'प्रतीक' का सम्बन्ध है, वह धर्म, दर्शन, कला-विज्ञान और अन्य ज्ञान-क्षेत्रों का एक अभिन्न अंग है। प्रतीक का इतिहास ज्ञान के विकास का इतिहास है और ज्ञान का नित्य विकास प्रतीकों का सृजन एवं विस्तार ही है। यहां पर यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि आदिमानवीय दशा में भी प्रतीकों का एक देश से दूसरे देश या स्थान में गमन की प्रकिया (Migvation) एक ऐसा सत्य है जो मानवीय इतिहास से अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है। स्वास्तिक, कास, त्रिशूल और अनेक पूजा
७ श्रीमद्भगवद्गीता, विभूतियोग, पृ० ३६५ ८ आर्ट एण्ड दि साइन्टिफिक थॉट, मार्टिन जॉनसन, पृ० १२०
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