Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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श्री आनन्द अन्थ श्री आनन्द थ
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धर्म और दर्शन
एकान्तिक धारणाएँ और स्पाद्वाद
स्याद्वाद द्वारा दार्शनिक एकान्तवादों के समन्वय करने का जो प्रयास किया है, वह प्रायः इस प्रकार हैं—भावैकान्त, अभावैकान्त, द्वैतैकान्त, अद्वैतैकान्त, नित्यैकान्त, अनित्यैकान्त, भेदकान्त, अभेदैकान्त, हेतुवाद, अहेतुवाद, अपेक्षावाद, अनपेक्षादाद, दैववाद, पुरुषार्थवाद आदि ।
भावैकान्तवादियों का कथन है कि सब भावरूप ही है, अभावरूप कोई भी वस्तु नहीं
है— सर्वं सर्वत्र विद्यते - सब सर्वत्र है, न कोई प्रागभाव रूप है, न प्रध्वंसाभाव रूप है, न अन्योन्याभाव रूप है और न अत्यन्ताभाव रूप है । इसके विपरीत अभाववादी का कहना है कि सब जगत् अभावरूप है— शून्यमय है । जो भावमय समझता है, वह मिथ्या है । यह प्रथम संघर्ष का रूप है ।
調 द्वितीय संघर्ष है एक और अनेक का। एक (अद्वैत) वादी कहता है कि वस्तु एक है, अनेक
नहीं है । अनेक का दर्शन केवल माया - विजृम्भित है । इसके विपरीत अनेकवादी सिद्ध करता है कि पदार्थ अनेक हैं—एक नहीं हैं । यदि एक ही हों तो एक के मरने पर सबके मरने और एक के पैदा
होने पर सबके पैदा होने का प्रसंग आयेगा । जो न देखा जाता है और न इष्ट ही है ।
तृतीय द्वन्द्व है नित्य और अनित्य का । नित्यवादी कहता है कि वस्तु नित्य है । यदि वह अनित्य हो तो उसके नाश हो जाने के बाद फिर यह दुनिया और स्थिर वस्तुयें क्यों दिखाई देती हैं ? अनित्यवादी इसके विपरीत कथन करते हुए कहता है कि वस्तु प्रतिसमय नष्ट होती है, वह कभी स्थिर नहीं रहती है । यदि नित्य ही हो तो जन्म-मरण, विनाश, अभाव, परिवर्तन आदि नहीं होने चाहिये ।
चौथा दृष्टिकोण सर्वथा भेद और सर्वथा अभेद को स्वीकार करने का है । सर्वथा भेदवादी का कहना है कि कार्य, कारण, गुण, गुणी, सामान्य और सामान्यवान् आदि सर्वथा पृथक्-पृथक् हैं, अपृथक नहीं हैं । यदि अपृथक् हों तो एक का दूसरे में अनुप्रवेश हो जाने से दूसरे का अस्तित्व टिक नहीं सकता है । इसके विपरीत सर्वथा अभेदवादी कहता है कि कार्य, कारण आदि सर्वथा अपृथक् हैं, क्योंकि यदि वे पृथक्-पृथक् हों तो जिस प्रकार पृथसिद्ध घट और पट में कार्य-कारणभाव या गुण-गुणीभाव नहीं है, उसी प्रकार कार्यकारण रूप से अभिमतों अथवा गुण गुणीरूप से अभिमतों में कार्य-कारणभाव और गुण-गुणीभाव कदापि नहीं बन सकता ।
पांचवां अपेक्षकान्त और अनपेक्षैकान्त का संघर्ष है । अपेक्षैकान्तवादी का मंतव्य है कि वस्तुसिद्धि अपेक्षा से होती है। कौन नहीं जानता है कि प्रमाण से ही प्रमेय की सिद्धि होती है और इसलिये प्रमेय प्रमाण सापेक्ष है । यदि वह उसकी अपेक्षा न करे तो सिद्ध नहीं हो सकता । अनपेक्षवादीका तर्क है कि सब पदार्थ निरपेक्ष हैं, कोई भी किसी की अपेक्षा नहीं रखता । यदि अपेक्षा रखें तो परस्पराश्रय होने से एक भी पदार्थ सिद्ध नहीं हो सकेगा ।
हेतुवादी का कथन है कि हेतु-युक्ति से सब
छठवां दृष्टिकोण हेतुवाद और अहेतुवाद का है। सिद्ध होता है, प्रत्यक्षादि से नहीं, क्योंकि प्रत्यक्ष से देख लेने पर भी यदि वह हेतु की कसौटी पर खरा नहीं उतरता है तो कदापि ग्राह्य नहीं माना जा सकता है—' युक्त्यायन्न घटमुपैति तदहं दृष्ट्वापि न श्रद्ध े ।' अहेतु आगम-वादी कहता है कि आगम से हरएक वस्तु का निर्णय होता है । यदि आगम से वस्तु का निर्णय न माना जाये तो हमें ग्रहोपरागादि का कदापि ज्ञान नहीं हो सकता, क्योंकि उसमें हेतु का प्रवेश नहीं है ।
सातवां संघर्ष देव और पुरुषार्थ का है । दैववादी का मत है कि सब कुछ दैव (भाग्य) से होता है । यदि भाग्य में न हो तो कुछ भी नहीं मिल सकता और प्राप्त भी नष्ट हो जाता है ।
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