Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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अशाप्रवन अभिआयामप्रवभिनों आाआडन्दा
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धर्म और दर्शन
बढ़ेगी। परन्तु इस सम्बन्ध में यह विचारणीय है कि यदि मात्र 'अस्ति भंग' माना जाये और 'नास्ति भंग न माना जाये तो जो वस्तु एक स्थान पर है, वह अन्य सब स्थानों पर भी रहेगी। इस तरह एक स्थान पर विद्यमान घड़ा भी व्यापक हो जायेगा । इसी तरह केवल 'नास्ति भंग' ही माना जाये तो एक स्थान पर वस्तु का अभाव होने से सर्वत्र उसका अभाव हो जायेगा। एक वस्तु के सम्बन्ध में जो कथन है, उसको सार्वत्रिक समझना चाहिये। इसलिये अस्ति, नास्ति इन दोनों भंगों को पृथक्-पृथक मानने की आवश्यकता है।
इसके सिवाय इन भंगों का विषय अलग-अलग है। एक का कार्य दूसरे से नहीं हो सकता। जैसे घड़ा यहाँ नहीं है, इसका अर्थ यह नहीं है कि अमुक स्थान पर घड़ा है। अतः जिज्ञासा का समाधान करने के लिये 'वह कहाँ पर है', इसका ज्ञान कराने के लिए अस्ति भंग आवश्यक है। इसी प्रकार अस्ति-भंग का प्रयोग होने पर भी नास्ति-भंग की आवश्यकता बनी रहती है, जैसे 'मेरी थाली में रोटी है' कह देने पर भी 'तुम्हारी थाली में रोटी नहीं है' कहने की आवश्यकता रहती है क्योंकि ये दोनों चीजें भिन्न-भिन्न हैं। इस प्रकार अस्ति, नास्ति इन दोनों भंगों को पृथक्-पृथक् मानना सिद्ध है।।
अस्ति-नास्ति' नामक ततीय भंग उक्त दोनों भंगों से अलग स्वीकार करना होगा, क्योंकि केवल अस्ति अथवा केवल नास्ति द्वारा उसका ज्ञान नहीं हो सकता। मिश्रित वस्तु के कथन के लिये मिश्रित शब्द का उपयोग हो सकता है। मिश्रित वस्तु को भिन्न मानना प्रतीत सिद्ध है। जैसे खटमिट्ठा शब्द को ही ले लें। इसमें खट्टा और मीठा दो शब्द संयुक्त हैं और उनकी वाच्य वस्तु के गुण-धर्म भी अलग-अलग हैं। परन्तु उन दोनों के संयोग से एक तीसरे प्रकार की रसस्थिति व्यक्त होती है जो न खट्टी है और न मीठी है । अतः अस्ति-नास्ति रूप तीसरा भंग पहले बताये गये अस्ति, नास्ति इन दो भंगों से भिन्न है ।
अवक्तव्य नामक चौथा भंग है । पदार्थ में विद्यमान अनेक धर्म एक साथ नहीं कहे जा सकते। इसलिये एक साथ स्व-पर-चतुष्टय द्वारा कहे जाने की अपेक्षा वस्तु अवक्तव्य है। इसके सिवाय वस्तु इसलिये भी अवक्तव्य है कि उसमें जितने धर्म हैं, उतने उसके वाचक शब्द नहीं हैं। धर्म अनन्त हैं और शब्द संख्यात । दूसरी बात यह भी है कि पदार्थ स्वभाव से अवक्तव्य है। वह अनुभव में आ सकता है किन्तु शब्दों से नहीं कहा जा सकता । जैसे मिश्री का मीठापन या नमक का खारापन यदि कोई जानना चाहे तो वह शब्दों द्वारा नहीं किन्तु चखकर ही जाना जा सकता है। इस प्रकार कई अपेक्षाओं से पदार्थ अवक्तव्य है।
यह तो सुविदित ही है कि जिस अपेक्षा से हम वस्तु के 'अस्तित्व' अथवा 'नास्तित्व' का कथन करते हैं, उसकी अपेक्षा वस्तु के होने या न होने के बाद भी अन्य सभी अपेक्षायें अकथनीय रहती हैं और उनका अस्तित्व अस्वीकृत नहीं किया जा सकता। उन अपेक्षाओं के सद्भाव की अभिव्यक्ति के लिये समानवाचक शब्द का प्रयोग करना पड़ता है।
यद्यपि कई अपेक्षाओं से पदार्थ अवक्तव्य है, फिर भी किसी दृष्टि से वक्तव्य भी हो सकता है। इसलिये जब अवक्तव्य के साथ 'अस्ति', 'नस्ति' और 'आस्ति-नास्ति' को संबद्ध करेंगे तब क्रमशः 'अस्ति-अवक्तव्य,' 'नास्ति-अवक्तव्य' और 'अस्ति-नास्ति-अवक्तव्य' नामक क्रमशः पंचम, षष्ठ और सप्तम भंग बन जाते हैं। स्यादवाद और नय
स्याद्वाद के अंग-प्रत्यंग नय हैं। नय न तो प्रमाण हैं और न अप्रमाण है किन्तु प्रमाणांश हैं। प्रमाण के द्वारा पूर्ण वस्तु का ज्ञान होता है और नय प्रमाण के द्वारा परिज्ञात वस्तु के एक
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