Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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स्याद्वाद सिद्धान्त : एक अनुशीलन देश को ग्रहण करता है । इसीलिये अनन्त धर्मों से युक्त समग्र वस्तु प्रमाण के द्वारा ज्ञात होने पर भी अपने-अपने अभिप्रायानुसार उस वस्तु के एक धर्मविशेष का ज्ञान कराने वाले को नय कहते हैं । वैसे तो कोई भी शब्द वस्तु के एक ही धर्म को कह सकता है, फिर भी उस शब्द द्वारा समस्त वस्तु भी कही जा सकती है और एक धर्म भी । इसका पता शब्दों से नहीं, भावों से लगता है । जब हम किसी शब्द के द्वारा पूरे पदार्थ को कहना चाहते हैं, तब वह प्रमाणवाक्य कहा जाता है और जब शब्द द्वारा किसी एक धर्म को कहा जाता है तब वह नयवाक्य माना जाता है । जैसे, जीव शब्द के द्वारा जीवन गुण एवं अन्य अनन्त धर्मों के अखंड पिंडरूप आत्मा का कथन करना प्रमाणवाक्य है, और जब जीव शब्द द्वारा सिर्फ जीवनधर्म का ही वोध किया जाये तो उसे नयवाक्य कहते हैं । इस वक्तव्य का यह अर्थ हुआ कि प्रमाणदृष्टि से पदार्थ अनेकान्तात्मक है और नयदृष्टि से एकान्तात्मक है, किन्तु वह सर्वथा अनेकान्तात्मक और सर्वथा एकान्तात्मक नहीं है । इस आशय को प्रगट करने के लिये प्रत्येक वाक्य के साथ स्वाद्वाद-सूचक स्यात् कथंचित् अथवा किसी अपेक्षा आदि में से किसी एक का प्रयोग किया जाता है । यदि हम किसी कारण वश प्रयोग न भी करें तो भी हमारा अभिप्राय ऐसा रहना चाहिये, अन्यथा यह सब व्यवस्था और उत्पन्न ज्ञान मिथ्या हो जायेगा ।
वस्तु अनन्तधर्मात्मक है, अतएव कथन-पद्धति भी अनन्त होनी चाहिये और जब उनकी वचन-पद्धति अनन्त है तो नय भी उतने ही प्रकार के होंगे। फिर भी उनका समाहार करते हुए और समझने में सरलता की दृष्टि से उन सब वचनपक्षों को अधिक से अधिक सात भागों में विभाजित कर दिया गया है। उनके नाम इस प्रकार हैं
१. नैगमनय २ संग्रह्नय, ३. व्यवहारनय ४ ऋजुमुत्रनय ५. शब्दनय, ६. समभिरूढ़नय, ७. एवंभूतनय ।
इन अनन्त वचनपक्षों का और भी संक्षेप में संग्रह करने के लिये निश्चयनय और व्यवहारनय, इन दो भागों में विभाजन करके वचन व्यवहार चलता रहता है। पूर्वोक्त ये सातों नय पूर्व - पूर्व स्थूल विषय को और उत्तरोत्तर सूक्ष्म विषय को ग्रहण करने वाले होते हैं । जैसे, नैगमनय सत्-असत् दोनों को विषय करता है, किन्तु संग्रहनय मात्र सत् को ही ग्रहण करता है । इसी प्रकार क्रमशः अन्यान्य नयों के बारे में भी समझ लेना चाहिये ।
स्याद्वाद संपूर्ण जैनेतर दर्शनों का समन्वय करता है। एतदर्थ जैनदर्शनकारों का कथन है कि संपूर्ण दर्शन 'नयवाद' में गर्भित हो जाते हैं, अतएव संपूर्ण दर्शन नय की अपेक्षा से सत्य हैं । उदाहरणार्थं ऋजुमुत्रनय की अपेक्षा बौद्ध संग्रहनय की अपेक्षा वेदान्त नैगमनय की अपेक्षा न्यायवैशेषिक, शब्दनय की अपेक्षा शब्दब्रह्मवादी तथा व्यवहारनय की अपेक्षा चार्वाक दर्शन को सत्य कहा जा सकता है। ये नयरूप समस्त दर्शन परस्पर विरुद्ध होकर भी समुदित होकर सम्यक्त्वरूप कहे जाते हैं। जिसप्रकार भिन्न-भिन्न मणियों के एक साथ गूंथे जाने से सुन्दर माला तैयार हो जाती है, उसी तरह जब भिन्न-भिन्न दर्शन सापेक्षवृत्ति धारण करके एक होते हैं, उस समय ये जैनदर्शन कहे जाते हैं। 'स्याद्वाद' परस्पर एक दूसरे पर आक्रमण करने वाले दर्शनों को सापेक्ष सत्य मानकर सबका समन्वय करता है । इसीलिये जैन विद्वानों ने जिन भगवान के वचनों को 'मिथ्यादर्शनों का समूह' मानकर 'अमृत का सार' बताया है ।
प्रमाण द्वारा गृहीत और नय द्वारा ज्ञात वस्तु और धर्म स्याद्वाद द्वारा अभिधेय हैं । उनमें अस्तित्व, नास्तित्व आदि सप्तभंग आपेक्षिक दृष्टि को लक्ष्य में रखते हुए समझे जा सकते हैं । इसलिये प्रमाण गृहीत वस्तु में अस्तित्व आदि सप्तभंगी की प्रणाली को प्रमाण-सप्तभंगी और नय द्वारा कथित वस्तु के एक धर्म के बारे में अस्तित्व आदि भंगों का प्रयोग नय-सप्तभंगी कहलाता है ।
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