Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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जैन रहस्यवाद बनाम अध्यात्मवाद
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अनिर्वचनीय शाश्वत चिदानन्द चैतन्यरस का पान करने लगता है। इसीको शास्त्रीय परिभाषा में हम निर्वाण अथवा मोक्ष कहते हैं।
रहस्यवाद की उक्त परिभाषा में अध्यात्म और दर्शन विशेष महत्त्व रखता है। अध्यात्मतत्त्व स्वयं में एक गुह्य तत्त्व है, जिसके निरावृत होने पर अपवर्ग की प्राप्ति हो जाती है । इस गृह्य तत्त्व का सम्बन्ध समूची सृष्टिप्रक्रिया से है, जो अनादि और अनन्त है और जिसका कर्ता-हर्ताधर्ता ईश्वर जैसा कोई व्यक्ति नहीं है, उसका कर्तृत्व और जीवन-संचालन भी रहस्य बना हुआ है।
रहस्यवाद और अध्यात्मवाद अध्यात्म अन्तस्तत्त्व की निश्छल गति-विधि का रूपान्तर है। उसका साध्य परमात्मा का साक्षात्कार और उससे एकरूपता की प्रतीति है। यह प्रतीति किसी-न-किसी साधनाफ्थ अथवा धर्म पर आधारित हुए बिना सम्भव नहीं। साधारणतः विद्वानों का यह मत है कि धर्म या सम्प्रदाय को रहस्यवाद के अन्तर्गत नहीं रखा जा सकता, क्योंकि धर्म और सम्प्रदाय ईश्वरीयशास्त्र (Beology) के साथ जुड़ा रहता है। इसमें विशिष्ट आचार, बाह्य पूजन-पद्धति, साम्प्रदायिक व्यवस्था आदि जैसी बातों की ओर विशेष ध्यान दिया जाता है, जो रहस्यवाद के लिए उतने आवश्यक नहीं। ३५
चतुर्वेदीजी का यह कथन तथ्यसंगत प्रतीति नहीं होता। ईश्वरीय शास्त्र का सम्बन्ध प्रत्येक धर्म अथवा सम्प्रदाय से उस रूप में नहीं, जिस रूप में वैदिक तथा ईसाई धर्म में है । जैन तथा बौद्ध दर्शन में ईश्वर को सृष्टि का कर्ता-हर्ता-धर्ता नहीं माना गया। साथ ही बाह्य पूजनपद्धति, कर्मकाण्ड आदि का सम्बन्ध भी जैन, बौद्ध धर्मों के मूल रूपों में नहीं मिलता। ये तत्त्व तो श्रद्धा और भक्ति के विकास के सूचक हैं। उक्त धर्मों का मूल तत्त्व तो संसरण के कारणों को दूर कर निर्वाण की प्राप्ति करना है। इसी को हम तत्तद् धर्मों का रहस्यवाद भी कह सकते हैं।
रहस्यवाद का सम्बन्ध, जैसा हम पहले कह चुके हैं, किसी-न-किसी धर्म-विशेष से अवश्य रहेगा। ऐसा लगता है, अभी तक भारतीय रहस्यवाद की व्यवस्था और उसकी परिभाषा मात्र वैदिक दर्शन और संस्कृति को मानदण्ड मानकर की जाती रही है। ईसाई धर्म भी इस सीमा से बाहर नहीं है। इन धर्मों में ईश्वर को कर्ता आदि स्वीकार किया गया है और इसीलिए रहस्यवाद को उस ओर अधिक मुड़ जाना पड़ा । परन्तु जहां तक श्रमण संस्कृति और दर्शन का प्रश्न है, वहाँ तो इस रूप में ईश्वर का कोई अस्तित्व नहीं। आत्मा ही परमात्मपद प्राप्त कर तीर्थंकर अथवा बुद्ध बन सकता है।
जैनधर्म नास्तिक नहीं जैन धर्म और दर्शन को कुछ विद्वानों ने नास्तिक दर्शनों की श्रेणी में बैठा दिया है, यह आश्चर्य का विषय है। इसी कल्पना पर यह मन्तव्य व्यक्त किया जाता है कि जैनधर्म और साहित्य में रहस्यवाद हो ही नहीं सकता, क्योंकि यह वेद और ईश्वर को स्वीकार नहीं करता। यही मूल में भूल है। प्राचीनकाल में जब वैदिक संस्कृति का प्राबल्य था तब नास्तिक की परिभाषा "वेद निन्दको नास्तिकः" के रूप में निश्चित की गई। परिभाषा के इस निर्धारण में तत्कालीन परिस्थितियों का विशेष हाथ था। वेदनिन्दक अथवा ईश्वर को सृष्टि का कर्ता-धर्ता के रूप में स्वीकार न करने वाले सम्प्रदायों में प्रमुख सम्प्रदाय थे-चार्वाक, जैन और बौद्ध । इसलिए उनको नास्तिक कह दिया गया। इतना ही नहीं, निरीश्वरवादी मीमांसा और सांख्य जैसे वैदिक दर्शनों को भी नास्तिक हो जाना पड़ा।
याला वटा
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३५ रहस्यवाद, (आ. परशुराम चतुर्वेदी) पृ० ६ ।
आचार्यप्रवभिनापार्यप्रवर अभिः श्राआनन्द अन् श्रीआनन्दन
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