Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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अभिसापार्यप्रवर श्रीआनन्द-ग्रन्थ32श्राआनन्दमन्थ
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- विद्यावती जेन, एम० ए०, साहित्यरत्न (आरा)
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। जैन-दर्शन का कबीर-साहित्य पर प्रभाव
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प्राकृत-अपभ्रंश के जैन कवियों ने एक ओर जहाँ प्रबन्ध-चरित-काव्यों की रचना की है, वहीं दूसरी ओर उन्होंने दर्शन-समन्वित रहस्यवादी ऐसे काव्यों की भी रचनाएँ की हैं, जो दर्शन एवं अध्यात्म के क्षेत्र में अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं तथा परवर्ती जनेतर साहित्य पर भी जिन्होंने अपना अमिट प्रभाव डाला है। फिर भी उनकी यह विशेषता रही है कि उनकी कृतियों में साम्प्रदायिकगन्ध लेशमात्र भी नहीं। कुछ समय पूर्व जैन-कवियों पर यह आरोप लगाया जाता था कि उनकी रचनाएँ साम्प्रदायिक एवं धार्मिक संकीर्णताओं से परिपूर्ण हैं। उनमें मात्र जैनधर्मोचित उपदेश और नीरस सिद्धान्तों का ही विवेचन किया गया है और इसलिए वे साहित्य की कोटि में नहीं आ सकतीं। किन्तु अनेक शोध-विद्वानों ने अपने गहन अन्वेषणों द्वारा इस धारणा को निर्मूल सिद्ध कर यह प्रमाणित कर दिया है कि जैन रचनाओं में काव्य की कई विधाओं के विकसित प्रयोग मिलते हैं। ये हमें लोकभाषा के काव्य रूपों को समझने में जहाँ सहायता पहुँचाते हैं, वहीं उस काल की भाषागत अवस्थाओं और प्रवृत्तियों को समझने की कुंजी भी प्रदान करते हैं ।
जैन कवियों का ध्यान दर्शन एवं अध्यात्म की ओर अधिक रहा और आरम्भ से ही वे आत्मा, परमात्मा, कर्म, मोक्ष, सहज-समाधि, समरस, अक्षरज्ञान जैसे गूढ़तम विषयों पर अपने विचार व्यक्त | करते रहे हैं। ऐसे कवियों में मुनि योगीन्दु (छटवीं सदी) रामसिंह (११वीं सदी) एवं आनन्दतिलक
(१२ वीं सदी) का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। योगीन्दु ने 'परमप्पयासु' एवं 'जोइसारू' नामक ग्रन्थों की रचना की। उनमें उन्होंने संकीर्ण मत-मतान्तरों तथा व्यर्थ के साम्प्रदायिक विवादों में न पड़कर स्वानुभूति और स्वसंवेद्यज्ञान को ही प्रमुखता दी तथा अपने जीवन में जिस चरमसत्य का अनूभव किया, उसे स्पष्ट और निर्भीक शब्दावली में अभिव्यक्त भी किया।
योगीन्दु के बाद मुनि रामसिंह एवं आनंदतिलकसूरि की रचनाएँ विशुद्ध दार्शनिक रहस्यवाद की कोटि में आती हैं। मुनि रामसिंह ने 'पाहुडदोहा' एवं आनन्दतिलक ने 'आणंदा' नामक रचनाओं का सृजन किया। उन रचनाओं के अध्ययन से यह स्पष्ट है कि उन्होंने रूढ़िगत परम्पराओं का अन्धानुकरण नहीं किया, किन्तु बाह्याडम्बरों एवं पाखण्डों का तीव्र शब्दों में खण्डन कर लोक को जीवन्मुक्ति का नया संदेश दिया। वस्तुतः इन कवियों ने जीवन एवं जगत के परिवर्तित मूल्यों एवं आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए कई महत्वपूर्ण दार्शनिक तत्वों का मौलिक एवं लोकानुकूल चिन्तन मार्मिक भाषा-शैली में प्रस्तुत किया है। सहज एवं स्वसंवेद्य-ज्ञानानुभाव, जड़ एवं घिसीपिटी बातों के विरोध में एक निर्भीक क्रान्ति तथा आचार एवं विचार की समरसता में विश्वास जगाने वाली उक्त कवियों की यह विचारधारा सार्वजनीन एवं जनभाषा (अपभ्रश) में होने के कारण इतनी लोकप्रिय एवं प्रेरक सिद्ध हुई कि परवर्ती कई जनेतर सन्तकवियों ने उससे प्रभावित
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