Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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स्याद्वाद सिद्धान्त : एक अनुशीलन
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परन्तु समन्वय पर्यन्त आ जाने पर समन्वय भी एक पक्ष बन गया। और जब यह पक्ष बन गया तो विपक्ष का बनना भी सहज था। फिर उनके भी समन्वय की आवश्यकता हुई। यही कारण है कि जब वस्तु की अवक्तव्यता में सत् और असत् का समन्वय हुआ तो वह भी एक एकान्त पक्ष और उसके साथ ही विपक्ष बन गया। इस प्रकार पक्ष-विपक्ष-समन्वय का चक्र अनिवार्य था।
इस चक्र को भेदने का मार्ग भगवान महावीर ने बताया। उन्होंने समन्वय का एक नया मार्ग बतलाया, जिससे समन्वय स्वयं आगे जाकर एक नये विपक्ष को मौका न दे । उनके समन्वय की यह विशेषता है कि वह समन्वय स्वतंत्र पक्ष न होकर सभी विरोधी पक्षों का यथा-योग्य सम्मेलन है। उन्होंने प्रत्येक पक्ष के बलाबल की ओर दृष्टि दी। यदि वे केवल दौर्बल्य की ओर ध्यान देकर समन्वय करते तो सभी पक्षों का सुमेल होकर भी एकत्र सम्मेलन न होता और किसी विपक्ष के उत्थान को अवकाश देता । अतएव उन्होंने प्रत्येक पक्ष की सचाई पर भी ध्यान दिया और सभी पक्षों को वस्तु के दर्शन में यथा-योग्य स्थान दिया । जितने भी अबाधित विरोधी पक्ष थे, उन सभी को सच बतलाते हुए प्रकट किया कि सम्पूर्ण सत्य का दर्शन तो उन सभी विरोधों को मिलाने से ही हो सकता है, पारस्परिक निरास से नहीं। इसकी प्रतीति नयवाद के द्वारा कराई । नयवाद का अर्थ है कि सभी पक्ष, सभी मत पूर्ण सत्य को जानने के भिन्न-भिन्न प्रकार हैं। किसी एक प्रकार का इतना प्राधान्य नहीं कि वह सत्य हो और दूसरा न हो। सभी पक्ष अपनीअपनी दृष्टि से सत्य हैं और इन्हीं सब दृष्टियों के यथायोग्य संगम से वस्तु के स्वरूप का आभास होता है । नय सुनय तभी कहलाते हैं जबकि वे अपनी-अपनी मर्यादा में रहें और अपने पक्ष का स्पष्टीकरण करते हुए दूसरे पक्ष का मार्ग अवरुद्ध न करें।
भगवान महावीर का समन्वय इतना व्यापक था कि उसमें पूर्व सभी मत अपने-अपने स्थान पर रहकर वस्तुदर्शन में यंत्र के भिन्न-भिन्न अंगों की तरह सहायक होते हैं । फल यह हुआ कि उनका वह समन्वय अंतिम ही रहा ।
अब इस संपूर्ण कथन के उपसंहार रूप में स्याद्वाद के स्वरूप का जैसा कि वह आगम में है, विवेचन किया जाता है। इसके लिये भगवती सूत्र का एक सूत्र अच्छी तरह से मार्ग-दर्शक है। उसका सार नीचे दिया जाता है।
गौतम का प्रश्न है कि रत्नप्रभा पृथ्वी आत्मा है या अन्य है ? उत्तर में भगवान् ने कहा(१) रत्नप्रभा पृथ्वी स्यादात्मा है । (२) रत्नप्रभा पृथ्वी स्यादात्मा नहीं है। (३) रत्नप्रभा पृथ्वी स्यादवक्तव्य है । अर्थात् आत्मा है और आत्मा नहीं है, इस प्रकार से
___ वह वक्तव्य नहीं है।
उक्त तीन भंगों को सुनकर गौतम ने पूछा एक ही पृथ्वी को आप इतने प्रकार से किस अपेक्षा से कहते हैं। उत्तर में भगवान् ने कहा
(१) आत्मा 'स्व' के आदेश से आत्मा है। (२) 'पर' के आदेश से आत्मा नहीं है । (३) तदुभय के आदेश से अवक्तव्य है ।
गौतम ने रत्नप्रभा पृथ्वी की तरह सभी पृथ्वियों, स्वर्ग, सिद्धशिला के बारे में पूछा और वैसे ही उत्तर मिला । परमाणु पुद्गल के प्रश्न के बारे में भी पूर्ववत् उत्तर दिया गया । परन्तु जब द्विप्रदेशी, त्रिप्रदेशी, चतुष्प्रदेशी, पंचप्रदेशी, षट्प्रदेशी स्कन्धों के बारे में प्रश्न पूछे गए तो
ADAJARAMNAADIMANANADA
Anan
dmuAAAAAAAAAAAwaamadanindranadiatAAAAAAAAAAAAAAAAARINAARI
आचार्यप्रवभि
आचार्यप्रवआभी श्रीआनन्दमन्थश्राआनन्दमयन्थ
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