Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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स्याद्वाद सिद्धान्त : एक अनुशीलन
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(I
भाग
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परस्पर विरोधी धर्मों को एक ही धर्म में स्वीकार किया जाये, इस प्रकार की समन्वयात्मक भावना से अनेकान्तवाद का जन्म हुआ। किसी भी विषय में प्रथम अस्ति-विधि पक्ष होता है तब कोई दूसरा उस पक्ष का नास्ति-निषेध पक्ष लेकर खंडन करता है। अतएव समन्वयकर्ता के समक्ष जब तक दोनों पक्ष उपस्थित न हों, तब तक समन्वय का प्रश्न ही नहीं उठता । इस प्रकार अनेकान्तवाद-स्याद्वाद के मूल में 'अस्ति और नास्ति' पक्ष का होना आवश्यक है। इसीलिए स्याद्वाद के भंगों में सर्वप्रथम अस्ति, नास्ति इन दोनों को स्थान मिलना स्वाभाविक है।
यदि भंगों के साहित्यिक इतिहास की ओर ध्यान दें तो ऋग्वेद के नासदीय सूक्त में भंगों का कुछ आभास मिलता है। उक्त सूक्त के ऋषि के समक्ष दो मत थे। कोई जगत् के आदि कारण को सत् कहते थे और कोई असत् । इस प्रकार जब ऋषि के समक्ष यह सामग्री उपस्थित हुई, तब उन्होंने कह दिया कि वह सत् भी नहीं है और असत् भी नहीं है। उनका यह निषेधपरक उत्तर भी एक पक्ष में परिणत हो गया। इस प्रकार सत्, असत् और अनुभय (अन्+उभय) ये तीन पक्ष तो ऋग्वेद जितने प्राचीन सिद्ध हो गये।
उपनिषदों के समय में जब आत्मा या ब्रह्म को परम तत्व मानकर विश्व को उसी का प्रपंच मानने की प्रवृत्ति हुई तब यह स्वाभाविक था कि अनेक विरोधों की भूमि ब्रह्म या आत्मा ही बने । परिणामतः आत्मा या ब्रह्म और ब्रह्मरूप विश्व को ऋषियों ने अनेक विरोधी धर्मों से अलंकृत किया। परन्तु जब उन विरोधों के तार्किक समन्वय में भी उन्हें संतोष नहीं मिला तब उसे वचनागोचर-अवक्तव्य बताकर अनुभवगम्य कह दिया। यदि इस प्रक्रिया को ध्यान में रखा जाये तो 'अणोरणीयान् महतो महीयान्' (कठोपनिषद्), 'सदसद्वरेण्यम्' (मुण्डकोपनिषद्) आदि उपनिषद् वाक्यों में किसी एक ही धर्मी में परस्पर विरोधी दो धर्मों को स्वीकार किया गया है। विधि और निषेध दोनों पक्षों का विधि-मुख से समन्वय हुआ है।
ऋग्वेद के ऋषि ने दोनों विरोधी पक्षों को अस्वीकृत करके निषेधमुख के तीसरे अनुभय पक्ष को उपस्थित किया है और उपनिषदों के ऋषियों ने दोनों विरोधी धर्मों को स्वीकृति द्वारा उभयपक्ष का समन्वय कर विधिमुख से चौथे उभय भंग का आविष्कार किया। जब परम तत्व को इन धर्मों का आधार मानने पर भी विरोधों की गन्ध आने लगी तो अन्त में उन्होंने दो मार्ग ग्रहण किये । जिन धर्मों को दूसरे लोग स्वीकार करते थे, उनका निषेध कर देना अर्थात् ऋग्वेद की तरह अनुभय (अन् + उभय) पक्ष का अवलंबन लेकर उत्तर दे देना कि न वह सत् है और न असत् है। यह प्रथम मार्ग हुआ । जब इसी निषेध को नेति-नेति के चरम तक पहुंचाया, तब उसमें से फलित हो गया कि वह अवक्तव्य है। यह दूसरा मार्ग हुआ।
इस चर्चा का फलितार्थ यह है कि जब दो विरोधी धर्म उपस्थित होते हैं, तब उसके उत्तर में तीसरा तक्ष तीन प्रकार से हो सकता है-(१) उभय विरोधी पक्षों को स्वीकार करने वाला (उभय), (२) उभय पक्ष को निषेध करने वाला (अनुभय) और (३) अवक्तव्य । इनमें से तीसरे प्रकार दूसरे प्रकार का विकसित रूप है, अतएव अनुभय और अवक्तव्य को एक ही भंग समझना चाहिए।
इस अवक्तव्य और वस्तु की सर्वथा अवक्तव्यता के पक्ष को व्यक्त करने वाले अवक्तव्य के भेद में यह ध्यान रखना आवश्यक है कि प्रथम को सापेक्ष अवक्तव्य और दूसरे को निरपेक्ष अवक्तव्य कह सकते हैं । सापेक्ष अवक्तव्य अर्थात् किसी वस्तु में दो या अधिक धर्मों को कहने के लिये तदर्थ शब्द की खोज करते हैं तो उनके वाचक भिन्न-भिन्न शब्द तो मिल जाते हैं किन्तु उन शब्दों के क्रमिक प्रयोग से विवक्षित सभी धर्मों का युगपत् बोध नहीं हो पाता, अतएव उसे अवक्तव्य कह देते हैं। निरपेक्ष अवक्तव्यता से यह प्रतिपादित किया जाता है कि वस्तु का पार
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APURANAJDO
GRAMMARVACADAKIRAAJAMATABASAN AARRAJARAMMARDANAMAHA
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आचार्यप्रवभिन्न जापान श्रीआनन्द अन् श्रीआनन्द अन्य
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