Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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مرا مرثعنننمعلثععععععععععععععععععععععععهعهعهعنهعن ميعععععيهك من فهمیدهیم هر کے معععععععععهد سعره
आचार्यप्रवर अभिआपाप्रवर आभन्न श्रीआनन्द अन्य श्रीआनन्द
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धर्म और दर्शन
रहने के कारण व्यक्तिशः अनित्य अर्थात् सादि-सान्त हैं और प्रवाह की अपेक्षा अनादि-अनन्त हैं । कारणभूत एक शक्ति के द्वारा द्रव्य में होने वाला त्रैकालिक पर्याय-प्रवाह सजातीय भी है और विजातीय भी है। द्रव्य में अनन्त शक्तियों से जन्य पर्याय-प्रवाह एक साथ चलते रहते हैं। भिन्न-भिन्न शक्ति-जन्य विजातीयपर्याय एक समय में एक द्रव्य में पायी जा सकती हैं। परन्तु एक शक्ति-जन्य भिन्न-भिन्न समयभावी सजातीय पर्याय एक द्रव्य में एक समय में नहीं पायी जा सकती हैं।
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त्रैकालिक अनन्त पर्यायों के एक-एक प्रवाह की कारणभूत एक-एक शक्ति (गुण) और ऐसी अनन्त शक्तियों का समुदाय द्रव्य है, यह कथन भी भेदसापेक्ष है। अभेददृष्टि से पर्याय अपनेअपने कारणभूत गुणस्वरूप और गुण द्रव्य-स्वरूप है। द्रव्य में सब गुण एक-से नहीं हैं। कुछ साधारण अर्थात् सब द्रव्यों में समान रूप से पाये जाने वाले होते हैं, जैसे---अस्तित्व, नास्तित्व, प्रदेशत्व, प्रमेयत्व आदि और कुछ असाधारण अर्थात् मुख्यरूप से एक-एक द्रव्य में पाये जाने वाले होते हैं, जैसे-चेतना, रूप आदि। इन असाधारण गुणों और तज्जन्य पर्यायों के कारण प्रत्येक द्रव्य एकदूसरे से भिन्न है।
पूर्वोक्त कथन से यह सहज ही स्पष्ट हो जाता है कि द्रव्य-स्वभाव का यह वैचित्र्य है कि परस्पर विरोधी शक्तियों---अस्तित्व, नास्तित्व, भेद-अभेद, नित्य-अनित्य आदि का उसमें समावेश है और ये सभी अपनी-अपनी अपेक्षाओं से युक्त हैं। इन आपेक्षिक धर्मों का कथन या ज्ञान अपेक्षा को सामने रखे बिना नहीं हो सकता । इसलिए परस्पर विरोधी होने पर भी नित्यानित्यादि दृष्टि का प्रयोग एक ही वस्तु में पक्ष-भेद को लक्ष्य में रखते हए होता है। इनका कथन करने के लिये स्व द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की अपेक्षा विधिरूप और पर द्रव्य-क्षेत्र-काल-भाव की अपेक्षा निषेधरूप प्रक्रिया अपनाई जाती है । इसमें न तो भ्रांति की संभावना है और न तत्वज्ञान सम्बन्धी कोई रहस्यमय गुत्थी सुलझाने का ही प्रश्न उठता है । इसके लिये एक उदाहरण प्रस्तुत करते हैं
एक अंगूठी किसी साधारण धातु या पीतल की बनी हुई है किन्तु उस पर इस प्रकार का मुलम्मा किया गया है कि वह सोने की बनी हुई-सी दिखलाई दे। कोई ग्राहक उसे खरीदने के लिए आता है, परन्तु खरीदने के पहले वह निश्चय कर लेना चाहता है कि अंगूठी सोने की बनी है या नहीं। वह एक अनुभवी व्यक्ति से पूछता है कि क्या वह अंगूठी सोने की बनी है ? उसे इसका उत्तर 'नहीं' में मिलता है। ग्राहक पुनः पूछता है कि वह सोने की नहीं बनी है तो फिर किस धातु की बनी हुई है ? जानकार उस धातु का नाम बताता है, जिससे वह अंगूठी बनी है और फिर उस पर सोने का मुलम्मा कर दिया गया है। प्रामाणिकता के लिये वह अंगूठी के किसी भाग को जरा-सा खरोंच कर बतला देता है कि अंगूठी किस धातु की बनी है।
इस प्रकार एक ही अंगूठी के विषय में दो कथन-एक निषेधात्मक (सोने की नहीं बनी है) और दूसरा विध्यात्मक (जिस धातु की बनी है, उसका नाम) न्याय्य और सत्य है। जब ग्राहक यह जानना चाहता है कि क्या अंगूठी सोने की बनी है तो 'नहीं' उत्तर सत्य है और जब अंगूठी सोने की नहीं बनी है तो किस धातु की बनी है ? उसका उत्तर चाहे तब अमुक धातु की बनी है, यह उत्तर सत्य है । सारांश यह है कि निषेधात्मक दृष्टि का उदय तब होता है जब वस्तु में 'पर' की अपेक्षा से कथन होता है और विधिदृष्टि का प्रयोग उसके 'स्व' रूप से कहने में होता है। वास्तव में अंगूठी तो सोने की बजाय दूसरी धातु की है, किन्तु जिसकी अपेक्षा नहीं कहा गया है, वह सोने की अपेक्षा कहा गया है। इस प्रकार विश्व का प्रत्येक पदार्थ आपेक्षिक कथन द्वारा स्याद्वाद प्रणाली का विषय बनता है,
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