Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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स्याद्वाद सिद्धान्त : एक अनुशीलन ३०६ विश्व में ऐसा कोई पदार्थ नहीं है, जो अपने स्वरूप से, अपने गुण, धर्म, स्वभाव से तो न हो किन्तु दूसरे के गुण, धर्म, स्वभाव से हो । यदि पदार्थ स्वरूप से तो न हो, किन्तु पररूप से हो तो मभी में एकरूपता हो जायेगी और विभिन्नता नाम की कोई चीज नहीं रहेगी। इसलिए प्रत्येक पदार्थ अपने स्वरूप से है, पररूप से नहीं। यह प्रयोग और स्वभाव से सिद्ध है। वह अस्तित्व रूप से एवं नास्तित्व रूप से परिणमित होता रहता है। फिर भी पारस्परिक विरुद्धता होने पर भी उनके । सहवर्तित्व रूप से रहने में कोई विरोध दिखलाई नहीं देता है। जैसे
घटमौलिसुवर्णार्थी नाशोत्पादस्थितिष्वयम् । शोक-प्रमोद-माध्यस्थं जनो याति सहेतुकम् ॥
एक स्वर्णकार के पास तीन ग्राहक पहुंचे। उनमें से एक को स्वर्ण-घट, दूसरे को मुकुट और तीसरे को स्वर्ण की आवश्यकता थी। उस समय स्वर्णकार स्वर्ण-घट को तोड़कर मुकुट बना रहा था। स्वर्णकार की इस प्रवृत्ति को देखकर घट के ग्राहक को दुःख हुआ, मुकुट के इच्छुक को हर्ष और स्वर्ण लेने वाला व्यक्ति, उस स्थिति में मध्यस्थ रहा। इसका तात्पर्य यह हुआ कि वहां एक ही समय में एक व्यक्ति विनाश को देख रहा है, दूसरा उत्पत्ति देख रहा है और तीसरा व्यक्ति उन दोनों स्थितियों में मध्यस्थ रहकर स्वर्ण-रूप ध्रुवता को देख रहा है ।
उक्त दृष्टान्त से यह स्पष्ट हो जाता है कि उत्पाद और विनाश दो परस्पर विरुद्ध धर्म हैं और वचन-व्यवहार द्वारा उनका अलग-अलग कथन किया जाता है, फिर भी ये उत्पाद और विनाश रूप दोनों धर्म एक ही स्वर्ण नामक पदार्थ में सहवर्ती रूप से विद्यमान हैं। उन दोनों धर्मों के होते रहने हर भी स्वर्ण नामक द्रव्य में किसी प्रकार का अन्तर नहीं आता है। दोनों ही स्थितियों में वह स्वर्ण नाम से सम्बोधित किया जाता है। स्वर्णत्व स्थायी रूप से स्थिर है। इसलिये परस्पर विरुद्ध धर्मों का एक पदार्थ में सहतित्व मानने में किसी प्रकार की आपत्ति नहीं है। इस प्रकार के स्वभाव से विश्व का प्रत्येक पदार्थ समन्वित है ।
स्याद्वाद की कथनशैली पदार्थ सर्वथा नित्य या सर्वथा अनित्य नहीं है किन्तु परिणामी नित्य है। परिणामी नित्य का अर्थ है-प्रतिसमय निमित्तानुसार भिन्न-भिन्न अवस्थाओं में परिवर्तित होते हुए भी अपने स्वरूप का परित्याग नहीं करना। प्रत्येक पदार्थ (द्रव्य) अपनी जाति का त्याग किये बिना ही प्रतिसमय निमित्तानुसार परिवर्तन करता रहता है। यही द्रव्य का परिणाम कहलाता है । यह परिणाम अनादि-अनन्त हैं और सादि-सान्त हैं। उस चक्र में से कभी कोई अंश लुप्त नहीं होता और कोई भाग मात्र नित्य और कोई भाग मात्र अनित्य नहीं हो सकता। इसका आशय यह हुआ कि प्रत्येक द्रव्य में दो शक्तियां होती हैं--एक ऐसी जो तीनों कालों में शाश्वत है और दूसरी ऐसी जो सदा अशाश्वत है । शाश्वतता के कारण प्रत्येक वस्तु ध्रौव्यात्मक (स्थिर) और अशाश्वतता के कारण उत्पाद-व्ययात्मक (अस्थिर) कहलाती है।
उक्त शाश्वतिक और अशाश्वतिक स्वभाव से युक्त द्रव्य की शाश्वतिक स्थिति को गुण और अशाश्वतिक स्थिति को पर्याय भी कहते हैं। जो गुण-पर्यायवान है, उसे द्रव्य कहते हैं । ये गुण और पर्याय अनन्त हैं। गुण त्रिकालवर्ती होते हैं और पर्याय प्रतिसमय अवस्था से अवस्थान्तर को करने वाली होती हैं । प्रकारान्तर से कहा जा सकता है कि द्रव्य में परिणाम-जनन की जो शक्ति होती है, वही उसका गुण कहलाती है और गुणजन्य परिणाम पर्याय । एक द्रव्य में शक्ति-रूप से अनन्त गुण हैं जो वस्तुतः आश्रयभूत द्रव्य से अविभाज्य हैं। प्रत्येक गुण-शक्ति की भिन्न-भिन्न समयों में होने वाली कालिक पर्यायें अनन्त हैं । द्रव्य और उसकी अंशभूत शक्तियां उत्पन्न व विनष्ट न होने के कारण नित्य अर्थात् अनादि-अनन्त हैं परन्तु सभी पर्याय प्रतिक्षण उत्पन्न तथा नष्ट होते
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