Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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ज्ञानवाद : एक परिशीलन २८६ शब्दों का संग्रह जब काफी मात्रा में हो जाता है तब उसे व्यक्त ज्ञान होता है । व्यंजनावग्रह अव्यक्त है और अर्थावग्रह व्यक्त है । प्रथम रूप जो अव्यक्त ज्ञानात्मक है वह व्यंजनावग्रह है । दूसरा रूप जो व्यक्त ज्ञानात्मक है वह अर्थावग्रह है ।
चक्षु और मन से व्यंजनावग्रह नहीं होता । क्योंकि ये दोनों अप्राप्यकारी हैं । इन्द्रियां दो प्रकार की हैं --- प्राप्यकारी और अप्राप्यकारी । प्राप्यकारी उसे कहा जाता है जिसका पदार्थ के साथ सम्बन्ध हो और जिसका पदार्थ के साथ सम्बन्ध नहीं होता उसे अप्राप्यकारी कहा जाता है । अर्थ और इन्द्रिय का संयोग व्यंजनावग्रह के लिए अपेक्षित है और संयोग के लिए प्राप्यकारित्व अनिवार्य है । चक्षु और मन ये दोनों अप्राप्यकारी हैं अतः इनके साथ अर्थ का संयोग नहीं होता । बिना संयोग के व्यंजनावग्रह संभव नहीं है। प्रश्न हो सकता है कि मन को अप्राप्यकारी मान सकते हैं पर चक्षु अप्राप्यकारी किस प्रकार है ? समाधान है - चक्षु स्पष्ट अर्थ का ग्रहण नहीं करती है इसलिए वह अप्राप्यकारी है । त्वगिन्द्रिय के समान स्पृष्ट अर्थ का ग्रहण करती तो वह भी प्राप्यकारी हो सकती थी । किन्तु वह इस प्रकार अर्थ का ग्रहण नहीं करती अतः अप्राप्यकारी है ।
दूसरा प्रश्न हो सकता है— त्वगिन्द्रिय के समान चक्षु भी आवृत वस्तु को ग्रहण नहीं करती इसलिए उसे प्राप्यकारी क्यों न माना जाय ?
उत्तर है कि यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि चक्षु काच, प्लास्टिक, स्फस्टिक आदि से आवृत अर्थ को ग्रहण करती है । यदि यह कहा जाय कि चक्षु अप्राप्यकारी है तो वह व्यवहित और अतिविप्रकृष्ट अर्थ को भी ग्रहण कर लेगी, यह उचित नहीं है । जैसे चुम्बक अप्राप्यकारी होते हुए भी अपनी सीमा में रहे हुए लोहे को ही आकृष्ट करता है । व्यवहित और अतिविप्रकृष्ट को नहीं । कहा जा सकता है कि चक्षु का उसके विषय के साथ भले सीधा सम्बन्ध न हो किन्तु चक्षु में से निकलने वाली किरणों का विषयभूत पदार्थ के साथ सम्बन्ध होता है । अतः चक्षु प्राप्यकारी है ।
समाधान है कि यह कथन सम्यक् नहीं है । क्योंकि चक्षु तैजस किरणयुक्त नहीं है । यदि चक्षु तैजस होता तो चक्षुरिन्द्रिय का स्थान उष्ण होना चाहिए। सिंह, बिल्ली आदि की आँखों में रात को जो चमक दिखलाई देती है अतः चक्षु रश्मियुक्त है । यह मानना युक्तियुक्त नहीं है । अतैजस द्रव्य में भी चमक देखी जाती है, जैसे मणि व रेडियम आदि में । इसलिए चक्षु प्राप्यकारी नहीं । अप्राप्यकारी होने पर भी तदावरण के क्षयोपशम से वस्तु का ग्रहण होता है । एतदर्थ मन और चक्षु से व्यंजनावग्रह नहीं होता है । शेष चार इन्द्रियों से ही व्यंजनावग्रह होता है ।
अर्थावग्रह सामान्य ज्ञान रूप है इसलिए पांच इन्द्रियों और छठे मन से अर्थावग्रह होता है । अवग्रह के लिए कितने ही पर्यायवाची शब्दों का प्रयोग हुआ है । नन्दीसूत्र में अवग्रह के लिए अवग्रहणता, उपधारणता, श्रवणता, अवलम्बनता और मेधा शब्द आये हैं । ३८
तत्त्वार्थभाष्य में - अवग्रह, ग्रह, ग्रहण, आलोचन और अवधारण शब्द का प्रयोग हुआ है । षट्खण्डागम में अवग्रह, अवधान, सान, अवलम्बन और मेधा ये शब्द अवग्रह के लिये प्रयुक्त हुए हैं।
अवग्रह के दो भेद
अवग्रह के दो भेद हैं- व्यावहारिक और नैश्चयिक |
trafor अवग्रह अविशेषित - सामान्य का ज्ञान कराने वाला होता है और व्यावहारिक अवग्रह विशेषित सामान्य को ग्रहण करने वाला होता है । नैश्चयिक अवग्रह के पश्चात् होने वाले
३८ नन्दीसूत्र सूत्र ५१, पृ० २२, पुण्यविजय जी ।
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