Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
View full book text
________________
ज्ञानवाद : एक परिशीलन
२६१
बुद्धि से संदेह का विनाश पाया जाता है।३६ इस प्रकार ईहा ज्ञान संशय का पश्चाभावी निश्चयाभिमुख ज्ञान है।
नन्दीसूत्र में ईहा के लिए निम्न शब्द व्यवहृत हुए हैं-आयोगनता, मार्गणता गवेषणता, चिन्ता, विमर्ष । तत्त्वार्थभाष्य में ईहा, ऊह, तर्क, परीक्षा, विचारणा और जिज्ञासा ये शब्द आए हैं।४०
अवाय
UU
मतिज्ञान का तृतीय भेद अवाय है। ईहा के द्वारा ईहित पदार्थ का निर्णय करना अवाय है । दूसरे शब्दों में विशेष के निर्णय द्वारा जो यथार्थ ज्ञान होता है, उसे अवाय कहते हैं । जैसे उत्पतन, निपतन, पक्षविक्षेप आदि के द्वारा “यह वक-पंक्ति ही है, ध्वजा नहीं है" ऐसा निश्चय होना अवाय है।४१ इसमें सम्यक्, असम्यक् की विचारणा पूर्णरूप से परिपक्व हो जाती है और असम्यक् का निवारण होकर सम्यक् का निर्णय हो जाता है। विशेषावश्यक में एक मत यह भी उपलब्ध होता है कि जो गुण पदार्थ में नहीं है, उसका निवारण अवाय है। और जो गुण पदार्थ .. में है उसका स्थिरीकरण धारणा है। भाष्यकार जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण के मत से यह सिद्धान्त सही नहीं है । चाहे असद्गुणों का निवारण हो, चाहे सद्गुणों का स्थिरीकरण हो, चाहे दोनों एक साथ हों-सब अवायान्तर्गत हैं।४२ तात्पर्य यह है कि अवायज्ञान कभी अन्वयमुख से प्रवृत्त होकर सद्भूत गुण का निश्चय करता है, कभी व्यतिरेकमुख से प्रवृत्त होकर असद्भुत का निषेध करता है और कभी-कभी अन्वय-व्यतिरेकमुख से प्रवृत्त होकर विधान और निषेध दोनों करता है।
नन्दीसूत्र में अवाय के पर्यायवाची निम्न शब्द आये हैं-आवर्तनता, प्रत्यावर्तनता, अवाय, बुद्धि, विज्ञान और षट्खण्डागम में अवाय, व्यवसाय, बुद्धि-विज्ञप्ति, आमुण्डा और प्रत्यामुण्डा ये पर्यायवाची नाम हैं।४३
तत्त्वार्थभाष्य में अवाय के लिए निम्न शब्द व्यवहृत हुए हैं-अपगम, अपनोद, अपव्याध, अपेत, अपगत, अपविद्ध, अपनुत ।४४
ये सभी शब्द निषेधात्मक हैं। उपर्युक्त पंक्तियों में विशेषावश्यक भाष्य में जिस मत का उल्लेख किया है, संभवतः यह वही परम्परा हो । अवाय और अपाय ये दो शब्द हैं । अवाय विध्यात्मक है और अपाय निषेधात्मक है। राजवातिक में प्रश्न उठाया है कि अवाय शब्द ठीक है या अपाय ठीक है ? उत्तर दिया है कि दोनों ठीक हैं। क्योंकि एक के वचन में दूसरे का ग्रहण स्वतः
३६ हा संदेहरूवा विचारबुद्धीदो संदेह विणासुवलंभा।
----धवला १, ६---१, १४, १७।३
Iran
४० (क) नंदीसूत्र सूत्र ५२, पृ० २२, पुण्यविजयजी
(ख) तत्त्वार्थभाष्य १११५ ४१ (क) प्रमाणमीमांसा ११११२८
(ख) सर्वार्थसिद्धि १।१५।१११।६ ४२ विशेषावश्यक भाष्य १८६ ४३ (क) नंदीसूत्र सूत्र ५३
(ख) षट्खण्डागम १३।५।५। सूत्र ३६ ४४ तत्त्वार्थसूत्र भाष्य १११५
armanapadadiatrenatammnama
يعتمداد
عععجعید فردی فرقہ وارد
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org