Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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उपचार्यप्रस
भावार्यप्रवर अभिनित श्रीआनन्दग्रन्थ श्राआनन्दान्थ
२६६ धर्म और दर्शन
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जिसका अन्त होता है वह सपर्यवसित है और जिसका अन्त नहीं होता वह अपर्यवसित श्रुत है । यहाँ पर भी द्रव्य और पर्याय की दृष्टि से समझना चाहिए।
जिसमें सदृश पाठ हों वह गमिक श्रत है। जिसमें असदृशाक्षरालापक हों वह अगमिक है।
अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य का स्पष्टीकरण पूर्व पंक्तियों में किया जा चुका है। मतिज्ञान और श्रुतज्ञान के सम्बन्ध में विशेष ज्ञातव्य
मतिज्ञान और श्रुतज्ञान के सम्बन्ध में कुछ बातें समझना आवश्यक हैं--
प्रत्येक संसारी जीव में मति और श्रतज्ञान अवश्य होते हैं। प्रश्न यह है कि ये ज्ञान कब तक रहते हैं ? केवलज्ञान के पूर्व तक रहते हैं या बाद में भी रहते हैं ? इसमें आचार्यों का एकमत नहीं है। कितने ही आचार्यों का अभिमत है कि केवलज्ञान की उपलब्धि के पश्चात् भी मतिज्ञान और श्रुतज्ञान की सत्ता रहती है। जैसे दिवाकर के प्रचण्ड प्रकाश के सामने ग्रह और नक्षत्रों का प्रकाश नष्ट नहीं होता किन्तु तिरोहित हो जाता है, उसी प्रकार केवलज्ञान के महाप्रकाश के समक्ष मतिज्ञान और श्रुतज्ञान का अल्प प्रकाश नष्ट नहीं होता किन्तु तिरोहित हो जाता है। दूसरे आचार्यों का मन्तव्य है कि मतिज्ञान और श्रुतज्ञान क्षायोपशमिक ज्ञान हैं और केवलज्ञान क्षायिक ज्ञान है। जब सम्पूर्ण रूप से ज्ञानावरण कर्म का क्षय होता है, तब क्षायिक ज्ञान प्रकट होता है, जिसे केवलज्ञान कहते हैं। उस समय क्षायोपशमिक ज्ञान नहीं रह सकता। इसलिए केवलज्ञान होने पर मतिज्ञान और श्रुतज्ञान की सत्ता नहीं रहती। प्रथम मत की अपेक्षा द्वितीय मत अधिक तर्कसंगत व वजनदार है और जैनदर्शन के अनुकूल है।
श्रुत-अननुसारी साभिलाप (शब्दसहित) ज्ञान मतिज्ञान है । श्रुत-अनुसारी सामिलाप (शब्दसहित) ज्ञान श्रुतज्ञान है।
मतिज्ञान साभिलाप और अनभिलाप दोनों प्रकार का होता है। किन्तु श्रुतज्ञान साभिलाप ही होता है।५४ अर्थावग्रह को छोड़कर शेष मतिज्ञान के प्रकार साभिलाप होते हैं। श्रुतज्ञान साभिलाप ही होता है। किन्तु यह बात स्मरण रखनी चाहिये कि साभिलाप ज्ञान मात्र श्रुतज्ञान नहीं है। क्योंकि ज्ञान साक्षर होने मात्र से श्रुत नहीं कहलाता। साक्षार ज्ञान परार्थ या परोपदेश क्षय या वचनाभिमुख होने की स्थिति में श्रुत बनता है। मतिज्ञान साक्षर हो सकता है किन्तु वचनात्मक या परोपदेशात्मक नहीं होता। श्रुतज्ञान साक्षर होने के साथ-साथ वचनात्मक होता है ।५५
___ मतिज्ञान का कार्य है उसके सम्मुख आये हुए स्पर्श, रस, गंध, रूप, शब्द, आदि अर्थों को जानना और उनकी विविध अवस्थाओं पर विचार करना । श्रुतज्ञान का कार्य है--शब्द के द्वारा उसके वाच्य अर्थ को जानना और शब्द के द्वारा ज्ञात अर्थ को फिर से शब्द के द्वारा प्रतिपादित करने में समर्थ होना । मति को अर्थज्ञान और श्रुत को शब्दार्थज्ञान कहना चाहिये।
मति और श्रत का सम्बन्ध कार्य-कारणसम्बन्ध है। मति कारण है और श्रुत कार्य है। श्रुतज्ञान शब्द, संकेत और स्मरण से उत्पन्न होने वाला अर्थबोध है। इस अर्थ का यह संकेत है, यह जानने के पश्चात् ही उस शब्द के द्वारा उसके अर्थ का परिज्ञान होता है। संकेत को मति जानती है । उसके अवग्रहादि होते हैं, उसके पश्चात् श्रुतज्ञान होता है ।
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५४ विशेषावश्यक भाष्य वृत्ति १०० ५५ तत्थ चत्तारि नाणाई ठप्पाइ ठवणिज्जाइ ।
-अनुयोगद्वार-२
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