Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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ज्ञानवाद : एक परिशीलन २६५ साधारण के हित के लिए अंगप्रविष्ट ग्रंथों को आधार बनाकर विभिन्न विषयों पर ग्रंथ लिखते हैं, वे ग्रंथ अंगवाह्य के अंतर्गत हैं । अर्थात् जिसके अर्थ के प्ररूपक तीर्थङ्कर हैं और सूत्र के रचयिता गणधर हैं वह अंगप्रविष्ट है। जिसके अर्थ के प्ररूपक तीर्थङ्कर हों और सूत्र के रचयिता स्थविर हों वह अंगबाह्य है । अंगबाह्य के कालिक, उत्कालिक आदि अनेक भेद हैं। इन सभी का परिचय हमने साहित्य और संस्कृति नामक ग्रंथ में दिया है । पाठकों को वहाँ देखना चाहिए। श्रुत वस्तुतः ज्ञानात्मक है । ज्ञानोत्पत्ति के साधन होने के कारण उपचार से शास्त्रों को भी श्रुत कहते हैं ।
आचार्य भद्रबाहु ने लिखा है कि जितने अक्षर हैं और उनके जितने विविध संयोग हैं, उतने ही ज्ञान के भेद हैं । उन सारे भेदों की गणना करना संभव नहीं है । अतः श्रुतज्ञान के मुख्य चौदह भेद बताए
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१. अक्षर
२. अनक्षर
३. संज्ञी
४. असंज्ञी
५. सम्यक्
६ मिथ्या
७. सादिक
८. अनादिक
C. सपर्यवसित
१०. अपर्यवसित
११. गमिक
१२. अगमिक
१०. अंगप्रविष्ट १४. अंगबाह्य
इन चौदह भेदों का स्वरूप इस प्रकार है । अक्षरश्रुत के तीन भेद हैं
१. संज्ञाक्षर - वर्ण का आकार ।
२. व्यंजनाक्षर - वर्ण की ध्वनि ।
३. लब्ध्यक्षर - अक्षर सम्बन्धी क्षयोपशम ।
संज्ञाक्षर व व्यंजनाक्षर द्रव्यश्रुत हैं और लब्ध्यक्षर भावश्रुत है ।
खाँसना, ऊँचा श्वास लेना, छींकना आदि अनक्षरश्रुत हैं ।
संज्ञा के तीन प्रकार होने के कारण संज्ञीश्रुत के भी तीन प्रकार हैं- १. दीर्घकालिकी - वर्तमान, भूत और भविष्य विषयक विचार दीर्घकालिकी संज्ञा है । २. हेतूपदेशिकी केवल वर्तमान की दृष्टि से हिताहित का विचार करना हेतुपदेशिकी संज्ञा है । ३. दृष्टिवादोपदेशिकी -- सम्यक् श्रुत के ज्ञान के कारण हिताहित का बोध होना दृष्टिवादोपदेशिकी संज्ञा है । जो इन संज्ञाओं को धारण करते हैं, वे संज्ञी कहलाते हैं । जिनमें ये संज्ञाएँ नहीं हैं वे असंज्ञी हैं ।
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असंज्ञी के भी तीन भेद हैं । जो दीर्घकाल सम्बन्धी सोच नहीं कर सकते वे प्रथम नम्बर के असंज्ञी हैं । जो अमनस्क हैं वे द्वितीय नम्बर के असंज्ञी हैं । यहाँ पर अमनस्क का अर्थ मनरहित नहीं किन्तु अत्यन्त सुक्ष्म मनवाला है। जो मिथ्याश्रुत में निष्ठा रखते हैं, वे तृतीय नम्बर के असंज्ञी हैं ।
सम्यक् श्रुत उत्पन्न ज्ञान- दर्शनधारक सर्वज्ञ, सर्वदर्शी ने जो द्वादशाङ्गी का उपदेश दिया, वह सम्यक्त है और सर्वज्ञों के सिद्धान्त के विपरीत जो श्रुत है, वह मिथ्याश्रुत है ।
जिस की आदि है वह सादिक श्रुत है और जिसकी आदि नहीं है वह अनादिक श्रुत है । द्रव्यरूप से श्रुत अनादिक है और पर्यायरूप से सादिक है ।
५३ नन्दीसूत्र सूत्र ३७
आयायप्रवर अभिनन्दन या आनन्द
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अभिनन्दन
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