Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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आपाप्रवनका श्रीआनन्दसाग्रन्थ श्राआनन्दमन्थ५१
२६८
धर्म और दर्शन
अवधिज्ञान के अधिकारी
अवधिज्ञान के अधिकारी चारों गतियों के जीव हैं। देवों और नारकों में जो अवधिज्ञान होता है वह भवप्रत्यय है।५६ और मनुष्यों एवं तिर्यंचों में जो अवधिज्ञान होता है वह गुणप्रत्यय है । जो अवधिज्ञान जन्म के साथ-ही-साथ प्रकट होता है, वह भवप्रत्यय है। देव और नारक जीवों को जन्म लेते ही अवधिज्ञान पैदा हो जाता है। वह भव ही ऐसा है कि वहाँ पर जन्म लेते ही उन्हें अवधिज्ञान हो जाता है। उसके लिए उन्हें व्रत, नियम आदि का पालन करना नहीं पड़ता। मनुष्य और तिर्यंच में ऐसा नहीं है। उन्हें व्रत, नियम का पालन करने से अवधिज्ञान होता है । इसलिए इसे गुणप्रत्यय अवधिज्ञान कहते हैं।
प्रश्न उबुद्ध हो सकता है कि अवधिज्ञानावरणकर्म के क्षयोपशम से अवधिज्ञान होता है तो फिर देव और नारकों को जन्म से ही किस प्रकार होता है ? उसके लिए क्या क्षयोपशम आवश्यक नहीं है ?
उत्तर में निवेदन है कि अवधिज्ञान के लिए अवधिज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम आवश्यक है। किन्तु अन्तर यह है कि देवों और नारकों का क्षयोपशम भवप्रत्यय होता है। वहाँ पर जन्म लेते ही अवधिज्ञानावरण का क्षयोपशम हो ही जाता है। किन्तु मनुष्य व तिर्यंच के लिए वह नियम नहीं है। उन्हें विशेषरूप से नियम आदि का पालन करना होता है, तब जाकर अवधिज्ञानावरण का क्षयोपशम होता है । क्षयोपशम दोनों में आवश्यक है । अन्तर केवल साधन में है। जो जीव जन्मग्रहण करने मात्र से क्षयोपशम कर सकते हैं, उनका अवधिज्ञान भवप्रत्यय है। जैसे पक्षियों में जन्म लेते ही उड़ने की शक्ति प्राप्त हो जाती है, पर मानव में नहीं।
गुणप्रत्यय अवधिज्ञान के छः प्रकार हैं -६०
१. अनुगामी—जिस क्षेत्र में स्थित जीव को अवधिज्ञान उत्पन्न होता है, उससे अन्यत्र जाने पर नेत्र के समान जो साथ-साथ जाय-बना रहे।
२. अननुगामी-उत्पत्ति-क्षेत्र के अतिरिक्त अन्य क्षेत्र में जाने पर जो न रहे। ३. वर्धमान-उत्पत्ति के समय में कम प्रकाशमान हो और बाद में क्रमशः बढ़े। ४. हीयमान-उत्पत्ति काल में अधिक प्रकाशमान हो और बाद में क्रमशः घटे । ५. अप्रतिपाती-जीवनपर्यन्त रहने वाला, अथवा केवलज्ञान उत्पन्न होने तक रहने वाला। ६. प्रतिपाती-उत्पन्न होकर जो पुनः चला जाए।
उपर्यक्त अवधिज्ञान के ये छः भेद स्वामी के गुण की दृष्टि से किये गये हैं। तत्त्वार्थराजवार्तिक में क्षेत्र आदि की दृष्टि से तीन भेद किये गये हैं
१. देशावधि, २. परमावधि, और ३. सर्वावधि ।११
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५६ (क) नन्दीसूत्र ७, (ख) द्विविधोऽवधिः । तत्र भवप्रत्ययो नारकदेवानाम् ।
-तत्त्वार्थसूत्र श२१-२२ ६० तं समासओ छव्विहं पण्णत्तं । तं जहा-आणुगमियं, अणाणुगमियं, वड्ढमाणयं, हायमाणं, पडिवाति, अपडिवाति ।
--नन्दीसूत्र सूत्र ६ ६१ पुनरपरेऽवधेस्त्रयो भेदा देशावधिः परमावधिः सर्वावधिश्चेति ।।
-राजवार्तिक ११२२१५ (वृत्तिसहित)
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