Book Title: Anandrushi Abhinandan Granth
Author(s): Vijaymuni Shastri, Devendramuni
Publisher: Maharashtra Sthanakwasi Jain Sangh Puna
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धर्म और दर्शन
हो जाता है । जैसे 'यह दक्षिणी नहीं है', ऐसा अपाय त्याग करता है। तब 'उत्तरी है' यह अवाय निश्चय हो ही जाता है। इसी तरह 'उत्तरी है' इस प्रकार अवाय या निश्चय होने पर 'दक्षिणी नहीं है' यह अपाय त्याग हो जाता है । जो परम्परा इस ज्ञान को निषेधात्मक मानती है उसमें विशेषरूप से अपाय शब्द का प्रयोग हुआ है। जिस परम्परा में अवाय मात्र विध्यात्मक है उसमें प्रायः अवाय शब्द का प्रयोग हुआ है।४६ वस्तुतः यह ज्ञान धारणा की कोटि में पहुंचने के पश्चात् ही पूर्ण निश्चित होता है, एतदर्थ ही यह मतभेद है । अवाय में कुछ न्यूनता अवश्य रहती है । विध्यात्मक मानने पर भी उसकी दृढ़ावस्था धारणा में ही मानी है । एतदर्थ दोनों परम्पराओं में विशेष मतभेद की स्थिति नहीं रहती है। धारणा
मतिज्ञान का चौथा भेद धारणा है। अवाय के पश्चात् धारणा होती है। उसमें ज्ञान इतना दृढ़ हो जाता है कि उसका संस्कार अन्तरात्मा पर अंकित हो जाता है। इस कारण वह कालान्तर में स्मृति का हेतु बनता है। इसीलिए धारणा को स्मृति का हेतु कहा है। धारणा संख्येय और असंख्येय काल तक रह सकती है। विशेषावश्यक भाष्य में कहा है ज्ञान की अविच्युति धारणा है।४७ जिस ज्ञान का संस्कार शीघ्र नष्ट न होकर चिरस्थायी रह सके और स्मृति का हेतु बन सके वही ज्ञान धारणा है।
धारणा के तीन प्रकार हैं-अविच्युति, वासना, अनुस्मरण ।
१. अविच्युति-धारणा काल में जो सतत उपयोग चलता है वह अविच्युति है। उसमें पदार्थ के ज्ञान का विनाश नहीं होता है।
२. वासना-उपयोगान्तर होने पर धारणा वासना के रूप में परिवर्तित हो जाती है। यही वासना कारणविशेष से उद्बुद्ध होकर स्मृति को उत्पन्न करती है। वासना अपने आप में ज्ञान नहीं है। किन्तु अविच्युति का कार्य और स्मृति का कारण होने से दो ज्ञानों को जोड़नेवाली कड़ी रूप में ज्ञान मानी जाती है।
३. अनुस्मरण-भविष्य में प्रसंग मिलने पर उन संस्कारों का स्मृति के रूप में उबुद्ध होना।
इस प्रकार अविच्युति, वासना और स्मति ये तीनों धारणा के अंग हैं। वादिदेवसूरि का मन्तव्य है कि धारणा अवाय-प्रदत्त ज्ञान की दृढ़तम अवस्था है। कुछ समय तक अवाय का दृढ़ रहना धारणा है । धारणा स्मृति का कारण नहीं हो सकती, क्योंकि इतने लम्बे समय तक किसी ज्ञान का बराबर चलते रहना संभव नहीं है। यदि धारणा दीर्घकाल तक चलती रहे तो धारणा और स्मृति के बीच के काल में दूसरा ज्ञान होना बिलकुल असंभव है। क्योंकि एक साथ दो उपयोग नहीं हो सकते ।४८ संस्कार एक अलग गुण है जो आत्मा के साथ रहता है । धारणा उसकी व्यवहित कारण हो सकती है। किन्तु धारणा को-स्मृति का सीधा कारण मानना तर्कयुक्त नहीं है। धारणा की
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४५ देखिए-सवार्थसिद्धि, राजवार्तिक ग्रन्थ । ४६ (क) देखिए-तत्त्वार्थसूत्र भाष्य, हारिभद्रीयटीका,
(ख) सिद्धसेनीय टीका ४७ विशेषावश्यक. १८० । ४८ स्याद्वाद रत्नाकर २।१०।
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